________________ अन्त्यानुप्रासमें यह अनुरणनात्मक ध्वनि चरम सीमाको पहुँच जाती है। शब्दालंकारोंके अतिरिक्त काव्यमें प्रायः सभी मुख्य अर्थालंकार प्रयुक्त हुए हैं। कुमारवर्णनके प्रस्तुत पद्यमें अप्रस्तुत वटवृक्षकी प्रकृतिसे प्रस्तुत कुमारके गुणोंके व्यंग्य होनेसे अप्रस्तुत प्रशंसा है। नम्रीभवेत् सविटपोऽपि वटो जनन्यां भूमौ लतापरिवृतो निभृतः फलाद्यैः / कौ-लीनतामुपनतां निगदत्ययं किं सम्यग्गुरोविनय एव महत्त्वहेतुः // 3 / 19 अप्रस्तुत आरोग्य, भाग्य तथा अभ्युदयका यहाँ एक 'आविर्भाव' धर्मसे सम्बन्ध है। अतः तुल्ययोगिता अलंकार है। आरोग्य-भाग्याभ्युदया जनानां प्रादुर्बभूवुर्विगतै जनानाम् / वेषाविशेषान्मुदिताननानां प्रफुल्लभावाद् भुवि काननानाम् / / 2 / 13 वसन्तवर्णनकी निम्नलिखित पंक्तियोंमें प्रस्तुत चन्द्रमा तथा अप्रस्तुत राजाका एक समानधर्मसे संबंध होनेके कारण दीपक है। व्यर्था सपक्षरुचिरम्बुजसन्धिबन्धे राज्ञो न दर्शनमिहास्तगतिश्च मित्रे / किं किं करोति न मधुव्यसनं च दैवादस्माद् विचार्य कुरु सज्जन तन्निवृत्तिम् // 79 प्रस्तुत पद्यमें अतिशयोक्तिकी अवतारणा हुई है, क्योंकि जिनेन्द्रोंकी कीत्तिको यहाँ रूपवती देवांगनाओंसे भी अधिक मनोरम बताया गया है / मनोरमा वा रतिमालिका वा रम्भापि सा रूपवती प्रिया स्यात् / न सुत्यजा स्याद् वनमालिकापिकीतिविभोर्यत्र सुरैनिपेया // 9 // 6 दुर्जननिन्दाके इस पद्यमें आपाततः दुर्जनकी स्तुति की गयी है, किन्तु वास्तव में, इस वाच्य स्तुतिसे निन्दा व्यंग्य है / अतः यहाँ व्याजस्तुति है / मुखेन दोषाकरवत् समानः सदा-सदम्भः-सवने सशौचः / काव्येषु सद्भावनयानमूढः किं वन्द्यते सज्जनवन्न नीचः // 1 / 5 इस समासोक्तिमें प्रस्तुत अग्निपर अप्रस्तुत क्रोधी व्यक्तिके व्यवहारका आरोप किया गया है / तेजो वहनसहनो दहनः स्वजन्महेतून् ददाह तृणपुञ्जनिकुञ्जमुख्यान् / लेभे फलं त्वविकलं तदयं कुनीते स्मावशेषतनुरेष ततः कृशानुः // 3 / 20 काव्यमें प्रयुक्त अन्य अलंकारोंमेंसे कुछके उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं / अर्थान्तरन्यास-क्वचन विजने तस्यौ स्वस्यो ररक्ष न रक्षकम् / न खलु परतो रक्षापेक्षा प्रभौ हरिणाश्रिते / / 5 / 9 विरोधाभास—ये कामरूपा अपि नो विरूपाः कृतापकारेऽपि न तापकाराः / सारस्वता नैव विकर्णिकास्ते कास्तेजसां नो कलयन्ति राजीः / / 1138 परिसंख्या-जज्ञ करव्यतिकरः किल भास्करादौ दण्डग्रहाग्रहदशा नवमस्करादौ / नैपुण्यमिष्टजनमानसतस्करादौ छेदः सुसूत्रधरणात् तदयस्करादौ / / 3 / 41 उदात्त-पात्राण्यमा ननृतुः पदे पदे समुन्ननादानकदुन्दुभिर्मुदे / घनाघनस्य भ्रमतो वदावदे मयूरवर्गे नटनान्निसर्गतः // 28 अर्थापत्ति-प्रीत्या विशिष्टा नगरेषु शिष्टाः काराविकारा न कृताधिकाराः / बाधा न चाधान्नरकेऽसुरोऽपि परोऽपि नारोपितवान् प्रकोपम् / / 2 / 14 विशेषोक्ति-जाते विवाहसमये न मनाग्मनोऽन्त लीनो मलीनविषयेषु महाकुलीनः // 3 // 37 306 : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org