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सिद्धक्षेत्र स्वर्णागिरी
करवाया तथा सं. 1883 में पुनः मथुरा के सेठ
लक्ष्मीचन्द्र जी द्वारा इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया दतिया स्टेशन से तीन मील की दूरी पर स्थित गया। इस जीर्णोद्धार के समय मुल शिलालेख चरणों स्वर्णागिरी (सोनागिरी) धामिक दृष्टि से सिद्ध क्षेत्र के नीचे होने से दब गया पर सेठ लक्ष्मीचन्द्र जी ने माना जाता है । जिस ग्राम में यह क्षेत्र स्थित है वह इसका अनवाद कराकर लगा दिया जिसे अविश्वसनीय सनावल कहलाता है, जो "श्रमणाचल" का अपभ्रश मानने का कोई कारण नहीं है। रूप प्रतीत होता है, जिसका तात्पर्य श्रमण संस्कृति के प्रमुख अंचल से है। जिससे प्रतीत होता है कि यह
जैन ग्रन्थों के उल्लेखों के अनुसार यह पर्वत जैन साधुओं क्षेत्र श्रमण दिगम्बर जैन साधुओं की प्राचीनतम । की प्रमुख साधना स्थली रहा है, व लगभग साढ़े पाँच तपोभूमि रही है।
करोड़ साधुओं ने इसे अपनी सिद्धभूमि होने का गौरव
प्रदान किया है। साधुओं के संघ के विहार के सम्बन्ध में । वर्तमान में यहाँ एक पहाड़ी बनी है जिस पर कल उल्लेखनीय प्राचीनतम घटना सन् 258 ई. के लगगभ की 77 मन्दिर बने हए हैं। नीचे के निकटवर्ती भ-भाग बताई जाती है जब कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में में भी सोलह भव्य मन्दिर बने हैं। इन सारे मन्दिरों महाकाल पड़ने पर जैन साधू संघ का एक अंश चलकर में पहाड़ी के शीर्षस्थ स्थान पर बने तीर्थ कर चन्द्रप्रभू यहाँ आकर ठहरा । उन्होंने वहाँ जो अपना शिलालेख के मन्दिर का विशेष महत्व है। पहाडी की सर्वोच्च लगवाया वह अभी तक उपलब्ध है। सम्राट अशोक शिला पर उत्कीर्ण तीर्थ कर चन्द्रप्रभू की प्रतिमा के के शासन काल में एक उपशासक कुमारपाल की चारों ओर भव्य मन्दिर बना है, जिसमें बाद में समय यहाँ नियुक्ति किये जाने का भी उल्लेख मिलता है। समय पर अन्य अनेकों तीर्थकर प्रतिमाएँ भी विराजमान कुछ विद्वानों के मतानुसार अपने प्रारंभिक काल में जब की गई हैं।
सम्राट अशोक का झुकाव जैन धर्म की ओर था, उन
दिनों सम्राट अशोक ने भी इस स्थान की वन्दना की थी। तीथंकर चन्द्रप्रभू की प्रतिमा यहाँ की प्राचीनतम एवं इस मन्दिर की मूल नायक प्रतिमा है। जैन शास्त्रों पहाड़ से मोक्ष को प्राप्त साढ़े पाँच करोड़ मुनियों के उल्लेख के अनुसार इस स्थल पर तीर्थकर चन्द्रप्रभ में सर्वाधिक प्रामाणिक ऐतिहासिक उल्लेख मनि नंगस्वामी का समवशरण विहार करते समय ठहरा था, अनंग कुमार का उपलब्ध होता है। इनके स्मारक के और उन्होंने काफी समय तक यहाँ उपदेश दिये थे। रूप में तीर्थ कर चन्द्रप्रभू के मन्दिर के निकट ही इनके इस कारण इस स्थान का अत्याधिक धार्मिक महत्व है। चरण प्रतिष्ठापित हैं। पहाड़ी पर बने अन्य मन्दिर भी इस घटना के प्रतीक स्वरूप ही यहाँ तीर्थ कर चन्द्रप्रभ अत्याधिक भव्य हैं तथा उनमें विराजमान प्रतिमाओं में की यह प्रतिमा उत्कीर्ण की गई। यह मनोज्ञ प्रतिमा से अनेकों काफी प्राचीन हैं। व्यवस्थापन समिति द्वारा खड़गासन मुद्रा में है जिसकी ऊँचाई साढे सात फीट एक मन्दिर के वरामदों में पुरातत्व संग्रहालय के रूप है। प्रतिमा के नीचे के भाग में उत्कीर्ण हिन्दी लेख में में एक वीथिका बना दी गई है । इसमें भी सन् 300 ई. जो कि किसी प्राचीन लेख के आधार पर लिखा गया तक की अनेकों प्राचीन जैन प्रतिमायें खण्डित रूप में है, इस प्रतिमा और मन्दिर को सम्वत् 335 वि. में उपलब्ध हैं। इनके साथ ही समवशरण आदि के कुछ निर्मित दर्शाया है । इस लेख के अनुसार श्री श्रवणसेन अवशेष भी इस संग्रहालय में हैं । पहाड़ी पर प्राकृतिक कनकसेन ने इस मन्दिर का निर्माण सं. 335 वि. में रूप से बने एक कुण्ड का आकार नारियल जैसा होने से
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