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पूजा की जाती है, दुर्भाग्य से उन्हें कोई पढ़ता नहीं है, न उनकी सूचियां बनी हैं। जिस दिन यह कार्य सम्पन्न हो सकेगा, इस क्षेत्र के जैन धर्म के विकास के इतिहास को सजीव रूप दिया जा सकेगा ।
सन् 1394 ई. में ग्वालियर के तोमर राज्य की स्थापना के साथ ही इस क्षेत्र के इतिहास पटल पर से अन्धकार का पर्दा हट जाता है । राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के साथ-साथ जैनधर्म के विकास का इतिहास भी अत्यंत सजीव रूप से प्रत्यक्ष होने लगता है। जैन मूर्तियों के शिलालेख और जैन मुनियों एवं जैन पण्डितों की रचनाएँ बहुत विस्तृत और अत्रुट जानकारी प्रस्तुत करती हैं। उनके आधार पर ग्वालियर क्षेत्र का और साथ ही जैन धर्म के विकास का इतिहास बहुत विस्तार के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है ।
ग्वालियर के तोमर राज्य के संस्थापक वीरसिंहदेव ( सन् 1375-1400 ई.) शिव और शक्ति के उपासक थे । वि. सं. 1439 (सन् 1382 ई.) में उन्होंने वीरसिंहावलोक नामक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की थी। वे ज्योतिष, धर्मशास्त्र एवं वेदों के प्रकाण्ड पण्डित थे । उनके द्वारा दुर्गाभक्ति तरंगिणी को भी रचना की गई थी । परन्तु साथ ही वे जैन धर्म के प्रति भी अनुदार नहीं थे । उनके समय में श्रीकृष्णगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य श्री जयसिंह सूरि ग्वालियर आए थे । वीरसिंहदेव के सभापण्डित शाङ्गधर तथा जयसिंह सूरि के बीच शास्त्रार्थं भी हुआ था । उस शास्त्रार्थं का विवरण जयसिंह सूरि के शिष्य नयचन्द्र सूरि ने अपने हम्मीर महाकाव्य में दिया है। नयचन्द्र सूरि ने लिखा है, " सूरियों के इस चक्र के क्रम में, जिनके चरित विस्मय के आवास थे, श्री जर्यासह सूरि हुए, जो विद्वानों में चूड़ामणि थे, उनके द्वारा सारंग को वादविवाद में पराजित किया गया । यह सारंग उन कवियों में श्रेष्ठ था जो षभाषा में कविता कर सकते थे, तथा वह प्रामाणिकों ( न्याय शास्त्रियों) में अग्रणी था ।"
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केवल नयचन्द्र की साक्षी के आधार पर यह मानना कठिन है कि शाङ्गधर जयसिंह सूरि से शास्त्रार्थ में पराजित हुए थे, परन्तु यह सुनिश्चित है कि तोमरराजसभा सूरिजी की ज्ञान गरिमा से बहुत अधिक प्रभावित हुई और ग्वालियर में जैन धर्म के अद्वितीय विकास का सूत्रपात हुआ ।
वीरसिंहदेव के पश्चात् उनके युवराज उद्धरणदेव (सन् 1400-1402 ई.) राजा बने। उनके छोटे-से राज्यकाल की कोई घटना ज्ञात नहीं हो सकी है। जैन धर्मं के विकास के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण उद्धरणदेव के युवराज वीरमदेव (सन् 1402 -- 1423 ई.) का राज्यकाल है ।
वीरमदेव स्वयं अम्बिकादेवी और शिव के भक्त थे । साथ ही वे जैन धर्म को भी प्रश्रय देते थे । उनका प्रधान मंत्री कुशराज जैन था ।
वीरम तोमर के समय में ग्वालियर में जैन धर्म का प्रभाव अपने विशिष्ट रूप में दिखाई देता है । देश के अन्य भागों में उस समय हिन्दू और जैन आपस में पर्याप्त भेदभाव मानने लगे थे और दो नटखट भाइयों के समान दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी भी आपस में झगड़ते थे । परन्तु यह मनमुटाव केवल ऊपरी था। वह जो हो, वीरमदेव के समय में ग्वालियर में कुछ और प्रकार का दृश्य दिखाई देता है । यहाँ का राजा शिव-शक्ति का अनन्य उपासक और मंत्री अत्यन्त धर्मपरायण जैन था । परन्तु दोनों के निजी धर्म एक-दूसरे के पूरक दिखाई देते हैं । उस समय ग्वालियर के जैन पट्ट के भट्टारक थे गुणकीर्ति (सन् 14111429 ई.) । भट्टारक गुणकीर्ति ने जैन काव्य यशोधर चरित लिखाया अजंन कवि पद्मनाथ कायस्थ से । यद्यपि उसी समय वीरमदेव की राजसभा में नयचन्द्र सूरि जैसे महाकवि भी थे, तथापि उन्होंने जैन चरित न लिखकर हम्मीर महाकाव्य तथा रम्भा मंजरी लिखे, अर्थात् जैन
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