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प्राप्त करने के लिए खेल्हा ने गोपाचल पर चन्द्रप्रभु की विशाल मूर्ति का निर्माण कराया। उसने ही रइधू से " सम्मईजिनचरिउ" ग्रन्थ की रचना कराई ।
रइधू ने मेघेश्वर चरित तथा पार्श्वनाथ चरित में एक और व्यापारी परिवार का उल्लेख किया है । यह परिवार दिल्ली से आकर ग्वालियर में बस गया था । साहु खेऊ दिल्ली से ग्वालियर आकर यहाँ नगर सेठ बन गए । खेऊ द्वीपान्तरों से वस्त्र और रत्न मँगाकर व्यापार करते थे । उसने गोपाचलगढ़ पर विशाल जिन मूर्ति बनवाई। इस मूर्ति के लेख से ज्ञात होता है कि उसके प्रतिष्ठाचार्य रइधू ही थे । खेऊ के पुत्र कमलसिंह भी ग्वालियर में ही रहे । उनके द्वारा आदिनाथ की ग्यारह हाथ ऊँची प्रतिमा बनवाई गई । इधू ने कमलसिंह के पुत्र हेमराज का भी उल्लेख किया है। हेमराज का व्यापार ग्वालियर जौर दिल्ली, दोनों स्थलों पर चलता था । हेमहाज संघाधिपति भी बना ।
16. द्विवेदी, ग्वालियर राज्यके अभिलेख, क्र. 293 1
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उसने गोपाचलगढ़ पर युगादिनाथ की प्रतिमा का निर्माण कराया । इस मूर्ति के लेख में ग्वालियर के महाराज कीर्तिसिंह देव को "हिन्दू-सुरत्राण" कहा गया है।
इसी समय एक और साहु पद्मसिंह के दर्शन होते हैं । इन्होंने अपनी "चंचला लक्ष्मी' का सदुपयोग करने के लिए 24 जिनालय बनवाए, पुष्पदन्त के आदिपुराण की प्रतिलिपि कराई तथा एक लाख ग्रन्थ प्रतिलिपि कराकर भट्टारक यशः कीर्ति को भेंट किए।
कुछ जैन साध्वियों ने भी अनेक गुहामन्दिर बनवाकर उनके मूर्तिलेखों पर अपने नाम अंकित करा दिए।
चालीस वर्षों के समय में ग्वालियर में जैन धर्म के विकास के लिए जो कुछ हुआ था, उसमें डूंगरेन्द्रसिंह और कीर्तिसिंह की उदार धार्मिक नीति तो प्रधान थी ही, तथापि इसका प्रमुख श्रेय भट्टारक गुणभद्र के
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( उखाई द्वार स्थित खण्डित जैन प्रतिमाऐं)
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