SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान-विश्लेषण | २४७ 000000000000 ०००००००००००० EKA HINILL मा THIC काल पड़ा रहकर अमव्य होने से उसके अध्यवसाय मलिन होने से पुन: अधःपतन करता है। अभव्य को भी दश पूर्व ज्ञान से कुछ न्यून द्रव्यश्रुत संभव है१५ क्योंकि कल्प भाष्य के उल्लेख का आशय है कि जब १४ पूर्व से लेकर १० पूर्व का पूर्ण ज्ञान हो तो सम्यक्त्व संभव है-न्यून होने पर भजना है । कोई एक आत्मा ग्रन्थि भेद योग्य बल लगाने पर भी अन्त में रागद्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर अपनी मूल स्थिति में आ जाते हैं-कोई चिरकाल तक उस आध्यात्मिक युद्ध में जूझते रहते हैं । कोई भव्य आत्मा यथाप्रवृत्ति परिणाम से विशेष शुद्ध परिणाम पाकर रागद्वेष के दृढ़ संस्कारों को छिन्न-भिन्न कर आगे बढ़ता है। शास्त्र में अटवी में चोरों को देखकर एक पुरुष तो भाग गया, दूसरा पकड़ा गया, तीसरा उनको हराकर आगे बढ़ा, इस दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। उसी प्रकार तीनों करण हैं१६ । अपूर्वकरण—जिस विशेष शुद्ध परिणाम से भव्य जीव इस रागद्वेष की दुर्भेद ग्रन्थि को लाँघ जाता है, उस परिणाम को शास्त्रीय भाषा में अपूर्वकरण कहा । इस प्रकार का परिणाम कदाचित् ही होता है बार-बार नहीं अतः अपूर्व कहा७ । यह अनिवृत्तिकरण का कारण है ।१८ यथाप्रवृत्तिकरण तो एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय को संभव है परन्तु अपूर्वकरण का अधिकारी पर्याप्त पंचेन्द्रिय होता है जो देशोनअर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में तो अवश्य मुक्ति में जाने वाला है। इस जीव को आत्म-कल्याण करने की तीन अभिलाषा रहती है । संसार के खट-पट से दूर रहना चाहता है। इा-द्वेषनिन्दा के दोष उस पर कम प्रभाव डालते हैं । सत्पुरुषों के प्रति बहुमान भक्ति दिखाता है, यों कहें कि ये जीव आध्यात्म की प्रथम भूमिका पर है। उसके मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध रुक जाता है१६ यथाप्रवृत्तिकरण में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी प्रवर्तन को कोई स्थान नहीं परन्तु अपूर्वकरण में द्विस्थानक रस वाले अशुभ कर्म को उससे भी प्रति समय हीन हीनरस को व शुभकर्म का द्विस्थान से चतु:स्थानक प्रतिसमय अनन्तगुण अधिक अनुभाग को बाँधता है।२० इसमें स्थितिघात, रसघात, गुणसंक्रमण, अभिनव स्थितिबन्ध कार्य होता है। अनिवृत्तिकरण२१-अपूर्वकरण परिणाम से जब रागद्वेष की ग्रन्थि छिन्न-भिन्न हो जाती है, तब तो जीव के और भी अधिक शुद्ध परिणाम होते हैं । जिस शुद्ध परिणाम को अनिवृत्ति कहते हैं । 'अनिवृत्ति' से अभिप्राय इस परिणाम के बल से जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर ही लेता है । उसको प्राप्त किये बिना पीछे नहीं हटता । वह दर्शन मोहनीय पर विजय पा लेता है । इस परिणाम की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है । 'निवृत्ति' का अर्थ 'भेद' भी होता है । इस करण में समसमय वाले त्रिकालवी जीवों के परिणाम विशुद्ध समान होते हैं भेद नहीं होता यद्यपि एक जीव के उत्तरोत्तर समयों में अनन्तगुणी विशुद्धि होती है । इस करण में भी स्थिति, अनुभागादि घात के चारों कार्य प्रवर्तते हैं । इस अनिवृत्तिकरण के बल से अन्तरकरण बनता है। अन्तरकरण (Interception Gap)-अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति में जब कई एक भाग व्यतीत हो जाते हैं व एक भाग मात्र शेष रह जाता है तब अन्तरकरण क्रिया प्रारम्भ होती है । वह भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही होती है । अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद होते हैं अत: अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त काल से अन्तरकरण काल का अन्तर्मुहूर्त छोटा होता है । अनिवृत्तिकरण के अन्तिम भाग में जो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म उदयमान है, उसके उन दलिकों को जो अनिवृत्तिकरण के बाद अन्तर्मुहूर्त तक उदय में आने वाले हैं, आगे-पीछे कर लेना अर्थात् उन दलिकों में से कुछ को अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय पर्यन्त उदय में आने वाले दलिकों में स्थापित कर देना (प्रथम स्थिति) व कुछ दलिकों को उस अन्तर्महुर्त के बाद उदय में आने वाले दलिकों के साथ मिला देना (द्वितीय स्थिति), इस तरह जिसका आबाधा काल पूरा हो चुका है ऐसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दो भाग किये जाते हैं । एक भाग तो वह है जो अनिवृत्तिकरण के चरम समय तक उदयमान रहता है और दूसरा जो अनिवृत्तिकरण के बाद एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल व्यतीत हो चुकने पर उदय में आता है । इस प्रकार मध्य भाग में रहे हुए कर्म दलिकों को प्रथम स्थिति व द्वितीय स्थिति में स्थापित करने के कारण रूप क्रिया विशेष के अध्यवसाय अन्तरकरण कहलाते हैं। इस तरह अनिवृत्तिकरण का अन्तिम 'समय व्यतीत हो जाने पर अन्तरकरण काल में कोई भी मोहनीय कर्म के दलिक ऐसे नहीं रहते जिनका प्रदेश व विपाकोदय संभव हो । सब दलिक अन्तरकरण क्रिया से आगे-पीछे उदय में आने योग्य कर दिये गये हैं । अतः अनिवत्तिकरण काल व्यतीत हो जाने पर जीव को औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है जिसका काल 'उपशान्ताद्धा' अन्तर्मुहूर्त कह चुके हैं। इस उपशान्ताद्धा काल में मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का अल्पांश भी उदय न रहने से व अति दीर्घ स्थिति वाले तादृश कर्मों को अध्यवसाय के बल से दबा देने से रागद्वेष के उपशम होने से अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को औपशमिक प्रादुर्भाव wa DHAMAULA एस BAAT H /HPUR 79 pes ARR. :....
SR No.210453
Book TitleGunsthan Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHimmatsinh Sarupriya
PublisherZ_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf
Publication Year1976
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Criticism
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy