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________________ 000000000000 ०००००००००००० SED AICIL गुणस्थान-विश्लेषण | २५३ आत्मा, १३-१४ परमात्मा सिद्ध । वैदिक दर्शन में पिपीलका मार्ग से गिर सकता व विहंगम मार्ग से २ मुक्ति कही जो जैनदर्शन की उपशम-क्षपक श्रेणी से मिलती सी हैं परन्तु जैनदर्शन में स्पष्ट विस्तृत वर्णन है। उपसंहार-यह है गुणस्थान का संक्षिप्त चित्रण | विषय गहन व अन्वेषणात्मक होने से स्थानाभाव के कारण विस्तृत भेद-प्रभेद, विचारों में जो गहनताएँ हैं उनका वर्णन नहीं किया। परन्तु निकृष्ट अवस्था निगोद (मिथ्यात्व) से लेकर किस प्रकार आत्मा नारायण अवस्था (पूर्ण परमात्मपद) प्राप्त कर सकता है-इसमें अनेक जन्म-मरण करने पड़ते हैं-इसको जानकर-समझकर भव्य जीवों को इसके प्रति प्रयास करना नितान्त आवश्यक है । एक वक्त सम्यक्त्व स्पर्श कर लिया तो क्षायोपशमिक अधिकतम अर्द्धपुद्गल परावर्तन में, औपशमिक ७/८ भव में, क्षायिक १ (चरमशरीरी) ३ भव (नरक व देव अपेक्षा से), ४ भव (असंख्यातवर्षायु जुगलिया-फिर देव, फिर मनुष्य) में मुक्ति प्राप्त कर ही लेगा। १ (अ) जेहिं दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहि भावेहि । जीवा ते गुणसण्णा णिहिट्ठा सव्वदरिसीहिं ।। (गोम्मट०जी० ८, धवला १०४) (आ) अनेन (गुणेशब्दनिरुक्तिप्रधानसूत्रेण) मिथ्यात्वादयोऽयोगिकेवलिपर्यन्ता जीवपरिणामविशेषास्त एव गुणस्थानानीति प्रतिपादितं भवति, (जी०प्र०) । यर्भावः औदायिकादिमिमिथ्यादर्शनादिभिः परिणामैः जीवाः गुण्यन्ते--ते मावा गुणसंज्ञा सर्वदर्शिभिः निर्दिष्टाः । (म०प्र०) २ समता : दर्शन और व्यवहार, पृ०१०४ । ३ संखेओ ओघोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा । -गो०जी० ३ चउदस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्वा ।-गो०जी० १० ४ मिथ्यात्वमोहनीयकर्म पुद्गलसाचिव्यविशेषादात्मपरिणामविशेषस्वरूपं मिथ्यात्वस्य लक्षणम् । -आर्हत०दर्श०५० ६७८ ५ (अ) मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्च अत्थाणं । एयतं विवरीयं, विणयं संसयिदमण्णाणं ॥ (गो०जी०१५) (आ) मिथ्या वि तथा व्यलीका असत्या दृष्टिदर्शनं विपरीतकान्तविसंशया ज्ञानरूपम् । (धवला १-१६२) ६ मिच्छतं वेदंतो जीवो विवरीयदसणो होदि । णय धम्मं रोचेदि हु, महुरं खु रसं जहा जरिदो ।-(गो०जीव० १७) अभिगृहीतमिथ्यात्व, अनभिगृहितामि०, अभिनिवेशिकमि०,संशयितमि०, अनाभोगिकमि०, लौकिकमि०, लोकोत्तरमि० कुप्रावचनिकमि०, अविनयमि०, अक्रियामि०, अशातनामि०, आडयामि० (आत्मा को पुण्य-पाप नहीं लगता) । मि०, जिनवाणी से न्यून प्ररूपणा, जिनवाणी से अधिक प्र०, जिनवाणी से विपरीत प्र०, धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म, साधु को असाधु, असाधु को साधु, जीव को अजीव, अजीव को जीव, मोक्षमार्ग को संसारमार्ग, संसार को मोक्षमार्ग, मुक्त को अमुक्त, संसारी को मुक्त कहे । २५ भेद । (क) सह आस्वादनेन वर्तते इति सास्वादनम् । (रत्नशेखर-गुणस्थान, ११) (ख) आयम् औपशमिक सम्यक्त्व लाभ लक्षणं सादयति-अपनयतीति आसादनं, अनन्तानुबन्धी कषायवेदनमिति, नरुक्तोय शब्दलोपः । आ-समन्तात् शातयति-स्फोटयति औपशमिक सम्यक्त्वमिति आशातनं अनन्तानुबन्धी कषाय वेदनमिति (हेमचंद्रवृत्ति ओ० दी० पृ० ११६) ६ दहिगुडमिव वामिस्सं, पुहमावं व कारिदु सक्कं । एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छोत्ति नायव्वे ।।-गो०जीव० २२ १० उपशमलब्धि, उपदेशश्रवणलब्धि, प्रायोग्यलब्धि । ११ (i) क्षयोपशमलब्धि-जिस लब्धि के होने पर तत्त्व विचार हो सके-ज्ञानावरणादि कर्मों के उदयप्राप्त सर्वघाती निषकों के उदय का अभाव-क्षय, अनुदय प्राप्त योग्य का सत्ता रूप रहना । (ii) विशुद्धिलब्धि-मोह का मन्द उदय होने पर मंद कषाय के भाव हों। . (ii) देशनालब्धि-जिनोक्त तत्त्वों का धारण एवं विचार हो (नरक में पूर्व संस्कार से) (iv) प्रायोग्य-जब कर्मों की सत्ता अन्तः कोटाकोटी सागर प्रमाण रह जावे व नवीन कर्मों का बन्ध अन्तः कोटा कोटी प्रमाण से संख्यातवें भाग मात्र हो-आगे-आगे घटता जाये, किसी का बन्ध भी घटे । (लब्धिसार ३५) ६, अनभिगृहित प्रक्रियामि०, अho, जिनव m Aay AN JECHAN - Jain Education International Valter BONUS S.Sust/HEROICTam
SR No.210453
Book TitleGunsthan Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHimmatsinh Sarupriya
PublisherZ_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf
Publication Year1976
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Criticism
File Size2 MB
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