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रमेशचन्द जैन
गीता में कहा गया है कि जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और इस आत्मा को नष्ट हुआ मानता है, वे दोनों ही अनभिज्ञ हैं; क्योंकि यह आत्मा न तो किसी को मारता है और न मारा जाता है ।"
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समयसार के बन्ध अधिकार में कहा गया है।
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं ।
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥ २४७ ॥
जो पुरुष ऐसा मानता है कि मैं परजीव को मारता हूँ और परजीवों के द्वारा मैं मारा जाता हूँ, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है, वह ज्ञानी है ।
गीता में कहा गया है कि जिस प्रकार पुराने कपड़ों को छोड़कर मनुष्य दूसरे वस्त्र धारण कर लेता है, उसी प्रकार पुराने शरीर को छोड़कर देही अन्य शरीर को धारण कर लेता है । इसी अभिप्राय को आचार्य पूज्यपाद ने समाधितन्त्र में इन शब्दों में व्यक्त किया हैजीर्णे वस्त्रे यथात्मानं न जीर्णं मन्यते तथा ।
जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीणं मन्यते बुधः ||६४ || समाधितन्त्र
जैसे वस्त्र के पुराने पड़ने पर बुद्धिमान् व्यक्ति अपने आपको पुराना नहीं मानता है, उसी प्रकार अपने शरीर के जीर्ण होने पर आत्मा को जीर्ण नहीं मानता है ।
गीता में कहा गया है कि इस आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं और न अग्नि जला सकती है । जल इसे भिगो नहीं सकता तथा वायु इसका शोषण नहीं कर सकता । जिसने जन्म लिया, उसका मरण निश्चित है और जो मर गया, उसका जन्म ध्रुव है । अतः अपरिहार्य विषय के निमित्त शोक नहीं करना चाहिए। जैनदर्शन का भी यही मन्तव्य है ।
गीता में कहा गया है कि निराहारी के विषयों से निवृत्ति हो जाती है तथा ब्रह्म या आत्मज्ञान होने पर सूक्ष्म आसक्ति भी निवृत्त हो जाती है" ।
प्रवचनसार में मुनि को निराहारी कहा गया है। मुनि की आत्मा परद्रव्य का ग्रहण न करने से निराहार स्वभाव वाली है । वही उसका अन्तरङ्ग तप है, मुनि निरन्तर उसी अन्तरङ्ग की 'इच्छा करते हैं और एषणा के दोषों से रहित जो भिक्षावृत्ति करते हैं, उसे सदा अन्य अर्थात् भिन्न समझते हैं । अतः वे आहार ग्रहण करते हुए भी निराहार हैं ।
तप
गीता में कहा गया है कि राग और द्वेष से रहित तथा अपने वश में की हुई इन्द्रियों
१. गीता २।१९
२ . वही २।२२
३. वही २।२३
४. वही २।२७
५. वही २।५९
६. जस्स असणमप्पा तं पि तओ तप्पडिच्छगा समणा ।
अण्णं भिक्खमणेसणमध ते
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समणा अणाहारा । प्रवचनसार ३।२७
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