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जन देना उचित नहीं समझते किन्तु उनके गुणों से लाभ उठाकर पुरुषार्थ युक्त परिश्रम को अधिक महत्व देते हैं, वही आत्मविकास की दृष्टि से श्रेयस्कर भी है। उस दृष्टि से खरतरगच्छ के महान आचार्यों ने जो कार्य किया उसका महत्व इतना अधिक है कि जैन समाज ही नहीं पर भारतीय संस्कृति के उपासक उनके कार्यों का ठीक मूल्यांकन करे । वैसा सम्यक् मूल्यांकन तभी हो सकेगा जब हम उनके द्वारा लिखे गये साहित्य का गहराई से अनुशीलन व अध्ययन करेंगे । इस विषय में भी मुनिजिनविजयजी के शब्द उद्धृत किये बिना नहीं रहा जाता, मुनिजी कहते हैं :
"खरतरगच्छ में अनेक बड़े-बड़े प्रभावशाली आचार्य, बड़े-बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े-बड़े प्रतिभाशाली पंडित मुनि और बड़े-बड़े मांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिर्विद, वैद्यक विशारद आदि कर्मठ यति-जन हुए जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा बढ़ाने में बड़ा योग दिया है । सामाजिक और साम्प्रदायिक उत्कर्ष के सिवा खरतरगच्छ के अनुयायियों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देशी भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम किया और इसके फलस्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों का निरूपण करनेवाली छोटो बड़ी सैंकड़ों हजारों ग्रन्थ-कृतियां जैन भंडारों में उपलब्ध हो रही हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों की की हुई यह उपासना न केवल जैनधर्म की दृष्टि से ही महत्व वाली है, अपितु समुच्चय भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतना हो महत्व रखती है ।"
खरतरगच्छ द्वारा चैत्यवास का उन्मूलन संयम मार्ग को पुनः प्रतिष्ठा का ही परिणाम है। लेकिन पिछले दो सौ वर्षों में इस कार्य में कुछ शिथिलता आई है । कारण स्पष्ट है, हमने पार्थिव शरीर या रूढ़ आचारों का तो महत्त्व दिया पर उसके पीछे जो समाज कल्याण की भावना और साधना थी, वह नहीं रही। फिर उन युगपुरुषों ने
गच्छ को छोड़कर दूसरा और कोई गच्छ इसके गौरव की बराबरी नहीं कर सकता। कई बातों में तो तपागच्छ से भी इस गच्छ का प्रभाव विशेष गौरवान्वित है । भारत के प्राचीन गौरव को अक्षुण्ण रखने वाली राजपूताने की वीरभूमि का पिछले एक हजार वर्ष का इतिहास, औसवाल जाति के शौर्य, औदार्य, बुद्धि-चातुर्य और वाणिज्य व्यवसाय - कौशल आदि महद् गुणों से प्रदीप्त है और उन गुणों का जो विकास इस जाति में इस प्रकार हुआ है वह मुख्यतया खरतरगच्छ के प्रभावान्वित मूल पुरुषों के सदुपदेश तथा शुभाशीर्वाद का फल है। इसलिए खरतरगच्छ का उज्ज्वल इतिहास यह केवल जैनसंघ के इतिहास का ही एक महत्वपूर्ण प्रकरण नहीं है, बल्कि समग्र राजपूताने के इतिहास का एक विशिष्ट प्रकरण है ।"
भारतीय संस्कृति और इतिहास में खरतरगच्छ के आचार्यों ने महत्वपूर्ण काम किया, उसका महत्व खरतर - गच्छ और ओसवाल समाज के लिए तो और भी अधिक हो जाता है । ओसवाल समाज को जैनधर्म में दीक्षित कर उच्च परस्परा की देन दी है, इसलिए ओसवाल समाज का इस परम्परा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना स्वाभाविक है। और वैसा ओसवाल समाज ने किया भी है । उनको प्रतिबोध देनेवाले दादा जिनदत्तसूरिजी को स्मृति ताजा रहे, इसलिए दादावाड़ियों का जगह-जगह निर्माण किया है । एक तरह से ये दादावाड़ियाँ समाज के मिलन का स्थान और दादा जिनदत्तसूरिजी के प्रति कृतज्ञता के सुन्दर प्रतीक हैं । जहाँ उनके चरणों की स्थापना कर पूजा की जाती है। उनके गुणों और कार्यों को याद की जाती है ।
लोगों में मान्यता है कि उन्होंने केवल अपने जीवनकाल में ही कल्याण नहीं किया था पर वे आज भी उनके भक्तों के संकट दूर करते हैं। चूंकि हम किसी महापुरुष की पूजा, भक्ति कामना-भाव से करना जैन तत्वों की ef से प्रतिकूल मानते हैं इसलिए इस बात को हम उत्ते
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