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३० : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ
पाध्यायको पढाया एवं जिन पद्मसूरि, विनयप्रभ, सोमप्रभको प्रमाण, आगमादि विद्याओंका अभ्यास कराया । सं० १४०० के मिती आषाढ मासकी प्रथम प्रतिपदाको पाटणके श्रीशांतिनाथ जिनालय में हमने (तरुणप्रभाचार्य) श्रीजिनपद्मसूरिजी के पट्ट पर आचार्य पदाधिष्टित किया और श्रीजिनलब्धिसूरि नाम प्रसिद्ध किया । इन्होंने गुजरात, मारवाड़, सवालक्ष, लाट, माड, सिन्धु, सोरठ आदि देशों में विचर कर स्थान स्थान पर महोत्सवादि द्वारा शासन प्रभावना की। चारों दिशाओंमें शासन भवन के निमित्त चार पद बनाये। तीन उपाध्याय, चार बाचनाचार्य, ८ शिष्य साधु और दो आर्याएं की। अपने प्रगटित गुण महात्म्यसे राय वणवीर, मालग प्रमुखादिसे पदसेवा कराई। इस प्रकार अतिशयवान आचार्य महाराजने अपना आयुशेष जान कर अपने पट्टयोग्य शिक्षा दे कर सं० १४०४ मिति आश्विन शुक्ला १२के दिन नागौर में समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए । श्रीसंघने उनके स्मारक स्तूपका निर्माण बड़े प्रशस्त रूपसे करवाया । यह श्रीजिनलब्धिरिकी स्तवना उनके सतीर्थ्य श्री तरुणप्रभसूरिने की ।
श्रीजिनलब्धिसूरि स्तूप नमस्कार ( गा० ४ ) और श्रीजिनलब्धिसूरि नागपुर स्तूप स्तवन ( गा० ८) नामक दोनों कृतियोंमें माता-पिताके नाम जन्म, दीक्षा, उपाध्याय, आचार्य पद व स्वर्गवासकी उपर लिखी बातें ही संक्षिप्त वर्णित है ।
खरतर युग प्रधानाचार्य गुर्वावत्नी में सं० १३९० में जिनपद्मसूरिकी पदस्थापन के समय इनको महोपाध्याय बतलाया है । सं० १३९३ के शत्रुंजय संघमें भी आप थे । त्रिशृंगममें राजा रामदेवकी राज सभा में विद्वत्ता द्वारा सन्मान प्राप्त किया। जिनकुशलसूरि के 'वैत्यवंदन कुल्कवृत्ति पर आपने टिप्पण लिखा था व १ शांतिस्तवन, २ वीतराग विज्ञासिका, ३-४-५ पार्श्व स्तवन, ६ प्रशस्ति आदि आपकी रचनाएँ भी प्राप्त हैं ।
प्रति परिचय
जिस श्रीजिनभद्रसूरि स्वाध्याय पुस्तिका से इन सब महत्त्वपूर्ण कृतियोंकी उपलब्धि हुई वह प्रति एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण संग्रह पुस्तिका हैं। जिसमें आगमसूत्र, प्रकरण, स्तोत्र स्तवन आदि सभी विषय के उपयोगी ग्रंथोंका संग्रह है । श्रीजिनभद्रसूरिजी महाराज एक महाप्रभावक और सुप्रसिद्ध आचार्य हुए हैं जिन्होंने जैसलमेर, खंभात, पाटण, जालोर, नागौर आदि सात स्थानोंमें ज्ञानभण्डार स्थापित किये थे और अनेक तीर्थ-मन्दिरोंकी प्रतिष्ठाएँ आदि कराई थीं। विशेष जानने के लिए विज्ञप्तित्रिवेणी, खरतर गच्छ पट्टावली आदि ग्रंथ देखने चाहिए। यह स्वाध्याय पुस्तिका आपके ही द्वारा संकलित है, इसकी पुष्पिका इस प्रकार है :
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' संवत् १४९० वर्षे । मार्गशिर सुदि ७ गुरौ दिने शतभिषा नक्षत्रे हरपण योगे श्रीविधिमार्गीय गुरु श्री जिनराजसूरि दीक्षितेन परम भट्टारक प्रभुश्री मज्जिनभद्रसूरि आत्मनमवबोधनार्थं श्रीसज्झाय पुस्तिका संपूर्णा जाता ॥ छ ॥ साधु साध्वी श्रावक श्राविकाणां कल्याणमस्तु ॥ लेखकपाठकयोः भद्रंभवतुः ॥ १ प० पद्मसिंह पुत्रिक्रया रजाई श्राविकया श्रीस्वाध्याय पुस्तिका लेखिता ॥ ( भिन्नाक्षरे ) "
यह प्रति १४४ पत्रोंकी हैं। एक एक पृष्ठ में १९ मे २९ तक पंक्तियां और प्रत्येक पंक्ति में ७० से ७४ तक अक्षर हैं, कहीं कहीं पर्याय भी लिखे हुए है । इस प्रकार यह महत्त्वपूर्ण स्वाध्याय पुस्तिका लगभग तेरह हजार श्लोक जितनी सामग्री से परिपूर्ण है । अक्षर सुन्दर बारीक होते हुए कागज पतले हैं और दीमकों द्वारा एक किनारे के हिस्सेको सछिद्र व नष्ट कर दिया है ।
उपरोक्त प्रतिमें प्राप्त ऐ० रचनाओंमें सबसे महत्वकी जिनलब्धिसूरि सम्धी चहुतरी व स्तूप नमस्कार संज्ञक है क्योंकि जिनलब्धिसूरितम्बधी अभी तक जो बाते अज्ञात थी वे इन्हीं के द्वारा प्रकाशमें आती है। इसलिए इन रचनाओंको आगे दिया जाता है ।
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