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खरतर गच्छके आचार्यों सम्बन्धी कतिपय अज्ञात ऐ० रचनाएँ : २७
इन कृतियों के साथ श्रीजिनकुशलसूरिजीकृत "श्रीजिनचंद्रसूरि चतुःसप्ततिका" गा० ७४ भी इस प्रतिमें है। यह हमें २८ वर्ष पूर्व गणिवर्य श्रीबुद्धिमुनिजी महाराजने लींबडीके भंडारसे नकल करके भेजी थी जिसका हमने “दादाजिनकुशलसूरि" पुस्तकके परिशिष्टमें प्रकाशन कर ही दिया था। एवं इसका सार ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रहमें उसी समय प्रकाशित कर दिया था।
उपर्युक्त सभी काब्य प्राकृत भाषामें और एक ही शैली में रचित है। श्रीजिनपतिसूरि पंचाशिका(गा०५५)के अतिरिक्त ५ कृतियां ७४ गाथाकी चतुः सप्ततिकाएं हैं, अन्तिम दो लघु कृतियां हैं। इनमें ऐतिहासिक वर्णन अल्प और गुणवर्णनात्मक स्तुति परक ही अधिक भाग है। फिर भी जो ऐतिहासिक तथ्य इनमें हैं, वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और अन्यत्र अप्राप्य भी हैं। गुरु स्तुतियां भी आत्माको ऊंचा उठाने व गुरुभक्ति में तल्लीन कर सत्पुरुषों के प्रति पूज्यबुद्धि आने पर आत्म-विकास होने में अद्भुत सहायक है। उपमाओंकी छटाएं बडी ही मनोज्ञ और. हृदयग्राही हैं। यहां इन सब कृतियोंका ऐतिहासिक सार दिया जा रहा है।
श्रीजिनपतिसूरि पंचाशिका
___ यह ५५ गाथाकी प्राकृत भाषामय रचना है। इसमें रचयिताने अपना नाम नहीं दिया है पर द्वितीय गाथाका “जिणवइणो निय गुरुणो” वाक्यसे ज्ञात होता है कि यह रचना श्रीजिनपतिसूरिजीके किसी शिष्यकी ही है। मरू-मण्डलके विक्रमपुर निवासी यशोवर्द्धनकी भार्या सूहवदेवी(जसमई)की कुक्षीसे सं० १२१०की मिती चैत्र वदि ८ मूल नक्षत्र में आपका जन्म हुआ। बाल्यकालमें ही वैराग्य वासित हो कर सं० १२१८ फाल्गुन बदि १०को अतिशय ज्ञानी सुगुरु जिनचंद्रसूरिसे दीक्षित हुए। गुरुदेवने पहलेसे ही आपकी तीर्थाधिपत्त्वकी योग्यता ख्यालकर जिनपति नाम निश्चय कर लिया था। बागड़ देशके बब्बेरकपुर में आपको आचार्य पदसे अलंकृत किया। आप समस्त श्रुतज्ञान स्वसमय-परसमयके पारगामी और वादीमपंचानन थे। आपने अनेकों वादियोंका दर्प दलन किया और शाकंभरीके राजा(पृथ्वीराज)के समक्ष "जयपत्र" प्राप्त किया। आशापल्लीमें (शास्त्रार्थ-विजयद्वारा) संघको आनंदित किया। आर गौतमस्वामीकी भांति लब्धिसम्पन्न, स्थूलिभद्रकी भांति दृढव्रती और तीर्थप्रभावनामें बज्रस्वामीकी भांति थे। आप वास्तविक अर्थों में युगप्रधान पुरुष थे। सं० १२२३ कार्तिक शुदि १३को आपको आचार्य पद मिला था।
श्रीजिनेश्वरसूरि (चतुः) सप्ततिका
यह ७४ गाथाकी प्राकृत रचना है। इसमें भी रचयिताका नाम नहीं है। आपका जन्म मरुकोट निवासी भांडागारिक नेमिचंद्रके यहां सं० १२४५ मिती मार्गशीर्ष शुक्ला ११को लखमिणि माताकी कुक्षीसे हुआ। आपका जन्मनाम आंबड़ था। सं० १२५८में खेड़पुरमें श्रीशांतिनाथ स्वामीकी प्रतिष्ठा के अवसर पर श्रीजिनपतिसूरिजीने आपको दीक्षितकर वीरप्रभ नाम रखा। लक्षण, प्रमाण और शास्त्र सिद्धान्तके पारगामी होकर मारवाड़, गूजरात, वागड़ देशमें विचरण किया। सं० १२७८ माघ सुदि के दिन जावालिपुर-स्वर्णगिरिमें आचार्य श्रीसर्वदेवसूरिजीने इन्हें श्रीजिनपतिसूरिजीके पट्ट पर स्थापितकर जिनेश्वरसूरि . नाम रखा।
यह पट्टाभिषेक भगवान महावीर स्वामी के मंदिरमें हुआ था। आपने १४ वर्षकी लघुवयमें दीक्षा ली और ३४वें वर्षमें गच्छधिपति बने। आपने शत्रुजय, गिरनार, स्थंभन महातीर्थ आदि तीर्थों की यात्रा की।
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