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जन-मंगल धर्म के चार चरण
मनुष्य के उदर में खाए हुए आहार के पाचन की सीमित क्षमता होती है। अतः अधिक मात्रा में खाने, खाद्य पदार्थों को अधिक भूनने, तलने या मसाले की भरमार करने से पाचन शक्ति पर अनावश्यक दबाव पड़ता है। जिससे उस खाए हुए आहार का पाचन ठीक से नहीं हो पाता। इसी प्रकार स्वाभाविक रूप से गुरु ( गरिष्ठ) मांस-मछली आदि पदार्थों को भी पचाने में उदर को कठिनाई होती है। इसलिए आहार के चयन पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता है। जो अभक्ष्य है उसे तो खाया ही नहीं जाय और जो भक्ष्य है उसे अभक्ष्य बनाकर नहीं खाया जाए।
जीवन विकास का सोपान
शाकाहार मात्र अपने आहार में शाक-सब्जियों के समावेश तक सीमित नहीं है, वह आचार की मर्यादा, मानसिक भावों में अहिंसा की व्यापकता, प्राणियों के प्रति करुणा एवं समानता की भावना तथा जीवन के प्रति आस्था का अनुष्ठान है। यह जीवन में अहिंसा के आचरण के उस चरण का प्रतिपादक है जिसमें प्राणि मात्र के प्रति समता एवं ममता के भाव को तो मुखरित करता ही है, प्राणि मात्र से मनुष्य के मैत्री भाव को प्रोत्साहित करता है। शाकाहार के प्रयोग से मनुष्य का मानसिक धरातल इतना उन्नत हो जाता है कि उसमें स्व-पर का भेद-भाव मिट जाता है और वह उस सीमा रेखा को पार कर परहित चिन्तन में ही लगा रहता है। "जीवो जीवस्य भोजनम्"-' जीव के लिए जीव का जीवन' उस मिथ्या और भ्रम मूलक धारणा का पोषक है जिसमें जीवन के अस्तित्व की अवधारणा ही सदा के लिए तिरोहित हो जाती है। अतः जीव जीव का भोजन नहीं है, तब जीव मनुष्य का भोजन कैसे हो सकता है ? जीव उसका सहयोगी हैं जो सम्पूर्ण प्राणि जगत् में प्रकृति की व्यवस्था के अनुरूप रहने और जीने का अधिकार रखता है। किसी भी प्राणि के जीने के अधिकार को छीनना मानवीय मूल्यों और सिद्धान्तों के विरुद्ध है। मनुष्य के भोजन के लिए दूसरे निरीह प्राणियों का वध और घात करना मानवीयता के उच्चादर्शों का हनन और मनुष्य के पाशविक होने को सिद्ध करता है।
यद्यपि सिंह आदि कुछ हिंसक प्राणियों में अन्य प्राणियों को मारकर खाने की वृत्ति पाई जाती है। बड़ी मछलियाँ भी छोटी मछलियों को निगल जाती हैं। जलचर मगर भी मांस भक्षी होता है। इसीलिए "जीवो जीवस्य भोजनम्" जैसे विकृत उक्तियों का कथन किया गया जो विकृत मानसिकता की परिचायक है। सम्पूर्ण प्राणि जगत् की संरचना पर गौर किया जाए तो हम पाते हैं कि सभी प्राणियों में देह या शरीर ही प्रधान है, आहार, निद्रा, भय और मैथुन ही उसकी वृत्ति है जो मनुष्य और अन्य प्राणियों में समान है। जिजीविषा सभी प्राणियों में समान रूप से पाई जाती है, कामैषणा प्राणियों की स्वाभाविक वृत्ति की परिचायक है।
पशु जीवन मात्र चतुर्विध प्रवृत्ति आहार, निद्रा, भय और मैथुन के लिए होता है। पशु के पास बुद्धि और विवेक नहीं होता
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है। शील, संयम, विनय आदि आचरण शील भावों के लिए मनःस्थिति का विकास नहीं होता है। उसके लिए उसका शरीर ही प्रधान होता है। इससे भिन्न मनुष्य के पास शरीर से परे उन्नत मानसिकता एवं मानसिक चेतना होती है जो उन्नत, शुद्ध एवं सात्विक भावों को उत्पन्न करती है। इसी चेतना के संस्कार प्राण शक्ति को विकसित एवं सन्तुलित रखते हैं। इसी से संकल्प शक्ति का भी विकास होता है जो चित्त शुद्धि के साथ-साथ आहार शुद्धि की भावना को विकसित करती है।
यही कारण है कि मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें हिताहित विवेक अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक होता है। उसमें कुछ भी करने से पूर्व समीक्षा करने की चेतना है, वह अपने संस्कारों का निर्माण स्वयं करता है और अपनी अन्तरात्मा की ऊँचाइयों को छूने की क्षमता रखता है। वह संकल्प कर सकता है। और शाश्वत जीवन मूल्यों को प्राप्त करने के लिए अपने लक्ष्य निर्धारित कर सकता है। यही उसकी मौलिक विशेषता है जो उसे संसार के सभी प्राणियों में गरिमा प्रदान करती है।
जीवन की सार्थकता के लिए संयम पूर्ण जीवन यापन मनुष्य का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए चित्त की शुद्धि और तदर्थ समुचित उपाय अपेक्षित है। शाकाहार चित्त की शुद्धि करता है, वह निर्मल परिणामों भावों को उत्पन्न करता है। इससे संयम की प्रेरणा मिलती है और उस ओर प्रवृत्ति होती है, अतः असंदिग्ध रूप से शाकाहार संयम की भूमिका है। इस सन्दर्भ में उपनिषद् का वाक्य" आहारशुद्धी सत्वशुद्धिः" महत्वपूर्ण है। आहार शुद्ध होता है तो चित्त शुद्ध होता ही है। जब चित्त शुद्ध होता है तो विवेक जाग्रत रहता है, भाव शुद्ध रहते हैं और स्वतः ही संयम की भावना प्रबल होती है। आहारगत संयम को स्वतः बल मिलता है। यही जीवन की वास्तविकता है जो मनुष्य को प्रकृति के समीप ले जाता है और प्रकृति की व्यवस्था में उसे ढालता है। वस्तुतः यदि देखा जाय तो प्रकृति स्वयं एक व्यवस्था है, सन्तुलन है और सात्विक जीवन का अनवरत प्रवाह है।
आचरण की शुद्धता मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक है। जिसमें आहारगत संयम, आहार की मर्यादा और पवित्रता का स्वतः समावेश है। इसके अन्तर्गत चाहे जो मत खाओ, चाहे जिस समय और चाहे जिसके साथ मत खाओ का निर्देश अंधा आग्रह नहीं है। यह प्रकृति का विधान है जो आहारगत संयम का निर्देश करता है। सात्विक आहार की अवधारणा भी इसी पर आधारित है, क्योंकि वह मनुष्य के अन्तर्जगत् में अवस्थित प्राण, चेतना, मन, बुद्धि और इन्द्रियों को प्रदूषण से मुक्त तो रखता ही है मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास के पर्याप्त अवसर भी प्रदान करता है। शाकाहार असत् से सत्, पशुता से मनुष्यता की विकास यात्रा है जो सतत अंधकार से प्रकाश की ओर उन्मुख करती हुई हिंसा से विरति और अहिंसा से रति उत्पन्न