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________________ अर्थ- योग, समाधि, बुद्धि-निरोध, स्वान्तनिग्रह, करना, उनका समर्थन व विरोध न करना, असंगतापूर्वक अनुभव अन्त:संलीनता ये ध्यान के पर्यायवाची हैं। योग अर्थात् चित्त का करना अपायविचय है। यह कषायव्युत्सर्ग है। निरोध, समाधि-चित्त की स्थिरता, धी निरोग-बुद्धि से चिन्तनरहित विपाकविचय - अपाय का, दोषों का, कर्मों का, कर्मों होना. स्वान्तः निग्रह-अपने अन्तःस्थल में स्थिर होना, अन्तः का विपाक-उदय का फल जैसा प्रकट हो रहा है उसे उसी रूप सलानता- अपन अन्त:करण म सलान हाना ध्यान ह अथात् मन, में समता व असंगतापूर्वक अनुभव करना विपाकविचय है, यह चित्त, बुद्धि और अहं का निरोध-निग्रह होना ध्यान है। कर्म-व्युत्सर्ग है। तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्ययन में धर्म-ध्यान के भेदों में संस्थानविचय - संसार या लोक के स्वरूप का अर्थात् आए 'विचय' शब्द की व्याख्या करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक और रातानि-शिति-ग (विनायकेचक प पवाद का असतापक सर्वार्थसिद्धि टीकाओं में 'विचयो विवेको विचारणेत्यनर्थान्तरम्' अनुभव करना संस्थानविचय है, यह संसार व्युत्सर्ग है। कहा है अर्थात् विचय, विवेक और विचारणा, ये समानार्थक हैं। व्युत्सर्ग - अपने में देह की और देह में अपनी स्थापना चिन्तन करने से ऐसा जान पड़ता है कि प्राचीन काल में विचारण करने से प्राणी को निज स्वरूप की विस्मृति हो जाती है। देह में शब्द का प्रयोग विचरण व आचरण-अनुभव करने के अर्थ में अपनी स्थापना करने से 'मैं देह हूँ' रूप अहंभाव (देहाभिमान) होता था। वर्तमान में भी विचरण शब्द का प्रयोग विहार करने उत्पन्न होता है। इसका परिणाम यह होता है कि देह की सत्यता के अर्थ में होता है। बौद्ध धर्म में ध्यान के प्रमुख ग्रन्थ (स्थायित्व) भासित होने लगती है और अपने में देह की स्थापना महासतिपट्ठान में सर्वत्र अनुपश्यी (ध्यान-साधक) के साथ करने से देह में ममता (आसक्ति) उत्पन्न हो जाती है, जिससे विहरति (अनुपस्सी विहरति) शब्द आता है, जहाँ पर विहार देह सुन्दर तथा सुखद लगने लगती है। इस प्रकार देह से शब्द का अर्थ 'यथाभूत तथागत' है, अर्थात् 'यथार्थ' में जैसा हो अभेदभाव के सम्बन्ध से अहम् (मान) और भेदभाव के सम्बन्ध रहा है उसे वैसा ही अनुभव करना है' इसी आशय से धर्म-ध्यान । से 'मम' (माया) उत्पन्न होता है। के चारों भेदों के साथ प्रयुक्त विचय शब्द का अर्थ-विचरण आचरण रूप अनुभव करना उपयुक्त लगता है। विचरण, चिन्तन अहम् और मम भाव से कामना की उत्पत्ति होती है जिससे आदि अर्थ ध्यान के लक्षण 'थिरमज्झ-वसाणं-स्थिर अध्यवसान' । चित्त कुपित, क्षोभित (अशान्त) हो जाता है और कामना की पूर्ति के बाधक होने से असंगत लगते हैं। अत: विचय का अर्थ है- में सुख का और अपूर्ति में दुःख का भास होने लगता है। सुख 'यथाभूत तथागत' अर्थात् ध्यान में जैसा अनुभव के रूप में प्रकट की दासता और दु:ख के भय से प्राणी निज अविनाशी (अनन्त) हो रहा है उसे यथार्थ रूप में वैसा ही देखना, उसके प्रति राग स्वरूप से विमुख हो जाता है अर्थात् विभाव में आबद्ध और द्वेष न करना, उसका समर्थन व विरोध न करना, उससे असंग स्वभाव से च्युत हो जाता है। यद्यपि अविनाशी निज स्वरूप रहना। असंग रहना ही व्युत्सर्ग है। इसी अर्थ में धर्म-ध्यान के सदैव विद्यमान है, उससे देशकाल की दूरी नहीं है, फिर भी प्राणी भेदों का विवेचन किया जा रहा है। उसे कठिन मानकर उससे निराश होने लगता है और देह दृश्यमान वस्तुएँ, जिनसे मानी हुई एकता है, वास्तविक नहीं, ध्यान की उपर्युक्त परिभाषा तथा व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में धर्म-ध्यान के चार भेद आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय उनके प्रति आशान्वित, लालायित एवं प्रयत्नशील रहता है। यह प्राणी का घोर प्रमाद है।। और संस्थानविचय में विचय शब्द का अर्थ विचार व चिन्तन करना उपयुक्त नहीं लगता है, कारण कि चिन्तन या विचारना प्राणी ने देहादि दृश्यमान वस्तुओं में सम्बन्ध कब और क्यों में चित्त ऊहापोह व विकल्पयुक्त होता है, ज्ञानोपयोगमय होता है, स्वीकार किया, इसका तो पता नहीं चलता है, परन्तु वस्तुओं से निर्विकल्प व स्वसंवेदन रूप नहीं होता है। अत: यहाँ विचय शब्द सम्बन्ध वर्तमान में ही विच्छिन्न होना सम्भव है। इससे यह सिद्ध का अर्थ विचार करना नहीं होकर विचरण करना, संवेदन व होता है कि हमारे स्वीकार करने से ही देहादि वस्तुओं से सम्बन्ध अनुभव करना अधिक उपयुक्त लगता है। यथा हुआ है। अत: प्रत्येक सम्बन्ध स्वीकृति मात्र से उत्पन्न होता है और अस्वीकृति मात्र से उसका सम्बन्ध नाश हो जाता है। ऐसी आज्ञाविचय- आज्ञा अर्थात् सत्य का श्रुतज्ञान का, अपने कोई स्वीकृति हैं ही नहीं जो अस्वीकृति से न मिट जाए। अनादि अविनाशी स्वभाव का, शरीर से.आत्मा की भिन्नता का कोई भी स्वीकृतिजन्य सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि अस्वीकृति जैसा स्वरूप प्रकट हो रहा है, वैसा ही अनुभव होना आज्ञाविचय के अतिरिक्त अन्य किसी अभ्यास, प्रयास से मिट जाय। है। यह शरीर व्युत्सर्ग कायोत्सर्ग है। इस दृष्टि से देहादि से अनन्तकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है, अपायांवचय - राग, द्वेष मोह आदि त्याज्य अपाय, दोषों वर्तमान में उसका विच्छेद -व्यत्सर्ग हो सकता है। को, कषायों को जैसे वे प्रकट हो रहे हैं, उन्हें वैसा ही अनुभव ० अष्टदशी / 2000 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.210387
Book TitleKayotsarga Dhyan ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherZ_Ashtdashi_012049.pdf
Publication Year2008
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Meditation Yoga
File Size642 KB
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