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________________ १२० आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ क्षीणाक्षीणाधिकार--किस स्थिति में अवस्थित कर्म-प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य या अयोग्य होते हैं, इसका विवेचन इस अधिकार में किया गया है। कर्मोकी स्थिति और अनुभाग के बढनेको उत्कर्षण, घटने को अपकर्षण और अन्य प्रकृति रूपसे परिवर्तित होने को संक्रमण कहते हैं । सत्तामें अवस्थित कर्म का समय पाकर फल देने को उदय कहते हैं। जो कर्म प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य होते हैं, उन्हें क्षीण स्थिति कहते हैं और जो इन के योग्य नहीं होते हैं उन्हें अक्षीण स्थितिक कहते हैं । इन दोनों का प्रस्तुत अधिकार में अन्यत्र दुर्लभ बहुत सूक्ष्म वर्णन है । स्थित्यन्तिक-अनेक प्रकार की स्थिति प्राप्त होनेवाले कर्म परमाणुओं को स्थितिक या स्थित्यन्तिक कहते हैं। ये स्थिति-प्राप्त कर्म प्रदेश उत्कृष्ट स्थिति, निषेक स्थिति, यथानिषेक स्थिति और उदय स्थिति के भेदसे चार प्रकार के होते हैं। जो कर्म बंधन के समय से लेकर उस कर्म की जितनी स्थिति है, उतने समय तक सत्ता में रह कर अपनी स्थिति के अन्तिम समय में उदय को प्राप्त होता है, उसे उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। जो कर्म प्रदेश बन्ध के समय जिस स्थिति में निक्षिप्त किया गया है, तदनन्तर उसका उत्कर्षण या अपकर्षण होने पर भी उसी स्थिति को प्राप्त होकर जो उदय काल में दिखाई देता है, उसे निषेक स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। बन्ध के समय जो कर्म जिस स्थिति में निक्षिप्त हुआ है, वह यदि उत्कर्षण और अपकर्षण न होकर उसी स्थिति के रहते हुए उदय में आता है, तो उसे यथानिषेक स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। जो कर्म जिस किसी स्थिति प्राप्त होकर उदय में आता है, उसे उदय स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। प्रकृत अधिकार में इन चारों ही प्रकारों के कर्मों का बहुत सूक्ष्म वर्णन किया गया है। ६. बन्धक और संक्रम अधिकार-जीव के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से पुद्गल परमाणुओं का कर्म रूप से परिणत होकर जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही होकर बन्धने को बन्ध कहते हैं। बन्ध के चार भेद हैं, प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध । यतः प्रकृति विभक्ति आदि पूर्वोक्त चारों विभक्तियां इन चारों प्रकार के बन्धाश्रित ही हैं। अतः इस बन्ध पर मूलगाथाकार और चूर्णि सूत्रकार ने केवल उनके जानने मात्र की सूचना की है और जयधवलाकार ने यह कह कर विशेष वर्णन नहीं किया है कि भूतबली स्वामी ने महाबन्ध में विविध अनुयोग द्वारों से बन्ध का विस्तृत विवेचन किया है, अतः जिज्ञासुओं को वहां से जानना चाहिए । संक्रम अधिकार-बन्धे हुए कर्मों का यथा संभव अपने अवान्तर भेदों में संक्रान्त या परिवर्तित होने को संक्रम कहते हैं। बन्ध के समान संक्रम के भी चार भेद हैं १. प्रकृति संक्रम, २. स्थिति संक्रम, ३. अनुभाग संक्रम, ४. प्रदेश संक्रम । एक कर्म प्रकृति के दूसरी प्रकृति रूप होने को प्रकृति संक्रम कहते हैं। जैसे सातावेदनीय का असातावदनीय रूप से परिणत हो जाना । विवक्षित कर्म की जितनी स्थिति पड़ी थी परिणामों के वश से उसके हीनाधिक होने को, या अन्य प्रकृति की स्थिति रूप से परिणत हो जाने को स्थिति संक्रम कहते हैं। साता वेदनीय आदि जिन प्रकृतियों में जिस जाति के सुखादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210378
Book TitleKashaypahud sutta arthat Jaydhaal Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size976 KB
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