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________________ कसायपाहुडसुत्त अर्थात् जयधवलसिद्धान्त १२३ अधःकरणादि परिणामों को करते हुए अन्तरंग में कौन कौनसी सूक्ष्म क्रियाएं होती हैं, इनका अतिगहन और विस्तृत विवेचन इस अधिकार में किया गया है । एक १३. संयमासयमलब्धि अधिकार -- जब आत्मा को अपने स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है और वह मिथ्यात्वरूप कर्दम (कीचड) से निकलकर बाहिर आता है, तो वह दो बातों का प्रयास करता है - तो यह कि मेरा पुनः मिथ्यात्व कर्दम में पतन न हो, और दूसरा यह कि लगे हुए कीचड को धोने का प्रयत्न करता है। इसके लिए एक ओर जहां वह अपने अपने सम्यक्त्व को दृढतर करता है, वही दूसरी ओर सांसारिक विषयवासनाओं से जितना भी संभव होता है अपने को बचाते हुए लगे कलिलकर्दम को उत्तरोत्तर धोने का प्रयत्न करता है । इसीको संयमासंयमलब्धि कहते हैं । शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय के अभाव से देशसंयम को प्राप्त करनेवाले जीव के जो विशुद्ध परिणाम होते हैं, उसे संयमासंयम या देशसंयम लब्धि कहते हैं । इसके निमित्त से जीव श्रावक के व्रतों को धारण करने में समर्थ होता है । इस अधिकार में संयमासंयम लब्धि के लिए आवश्यक सर्व कार्यविशेषों का विस्तार से वर्णन किया गया है । संयमलब्धि- अधिकार - यद्यपि गुणधराचार्य ने संयमासंयम और संयम इन दोनों लब्धियों को एक ही गाथा में निर्दिष्ट किया है और चूर्णिकार यतिवृषभाचार्य ने संयम के भीतर ही चारित्र मोह की उपशमना और क्षपण का विधान किया है, तथापि जयधवलाकार ने संयमलब्धि का स्वतंत्र अधिकाररूप से वर्णन किया है । प्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव होनेपर आत्मा में संयमलब्धि प्रकट होती है, जिससे आत्मा की प्रवृत्ति हिंसादि असंयम से दूर होकर संयम धारण करने की ओर होती है । संयम के धारण कर लेनेपर भी कषायों के उदयानुसार परिणामों का कैसा उतार-चढाव होता है, इस सब बात का प्रकृत अधिकार में विस्तृत विवेचन करते हुए संयमलब्धि स्थानों के भेद बतलाकर अन्त में उनके अल्पबहुत्व का वर्णन किया गया है । १४. चारित्र मोहोपशामना अधिकार - चारित्र मोहकमें के उपशम का विधान करते हुए बतलाया गया है कि उपशम कितने प्रकार का होता है, किस किस कर्म का उपशम होता है, विलक्षित चारित्र मोह - प्रकृति की स्थिति से कितने भाग का उपशम और कितने भाग की उदीरणा करता है । विवक्षित चारित्र करता है, उपशम करने पर संक्रमण और उदीरणा कब करता है ? उपशम के आठ करणों में से कब किस करण की व्युच्छित्ति होती है, इत्यादि प्रश्नों का उद्भावन करके विस्तार के साथ उन सब का समाधान किया गया है । अन्त में बतलाया गया है की उपशामक जीव वीतराग दशा को प्राप्त करने के बाद भी किस कारण से नीचे के गुणस्थानों में से नियम से नीचे के गुणस्थानों में गिरता है और उस समय उससे कौन कौन से कार्य - विशेष किस क्रम से प्रारम्भ होते हैं । करता है, कितने भाग का संक्रमण करता है। मोहनीय प्रकृति का उपशम कितने काल में १५. चारित्रमोहक्षपणा अधिकार - चारित्र मोहकर्म की प्रकृतियों का क्षय किस क्रम से होता है, किस प्रकृति के क्षय होनेपर कहां कितना स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व रहता है, इत्यादि अनेक आन्तरिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210378
Book TitleKashaypahud sutta arthat Jaydhaal Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size976 KB
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