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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि पांचों इन्द्रियों का दमन करके क्रोधादि से निवृत्त ___ अकारणाद् प्रियवादिनो मिथ्या दृष्टिकारणेन मां त्रासयितु होने पर यमराज के क्रोध का कोई कारण शेष नहीं। मुद्योगो विद्यते, अयं गतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा। अकारणेन रहता। संत्रासकरस्य ताड़न वधादि परिणामोऽस्ति अयं चापगतोमत्सुजैन शास्त्रों में उत्तम क्षमा के लिए कहा गया है। कृतेनेति द्वितीया क्षमा। अकारण अप्रिय भाषण करने कि- क्रोध उत्पन्न होने के साक्षात् कारण होने पर भी जो वाले मिथ्या दृष्टि से अकारण त्रास देने का प्रयास वह मेरे रंच मात्र भी क्रोध न करे वही उत्तम क्षमा धर्म है। प्रत्येक पुण्य से दूर हुआ है; ऐसा विचार कर क्षमा करना प्रथम स्थिति में परम समरसी भाव स्थिति में रहना ही उत्तम क्षमा है। अकारण मुझे त्रास देने वाले को ताड़न और वध का परिणाम होता है, वह मेरे सुकृत से दूर हुआ- यह द्वितीय "वधे सत्य मूर्तस्य परब्रह्म रूपिणो ममापकार क्षमा है (नियमासार तात्पर्यवृत्ति-११५) ठाणं में धर्म के हानिरिति परम समरसी भावस्थितिरुत्तमा क्षमा।" चार द्वारों में संतोष, सरलता और विनय में क्षमा ही प्रथम जैन धर्म उत्तम क्षमा को सर्वाधिक महत्व देता है है। साधु को “क्षमा श्रमण" भी कहा जाता है, जिसके मन में उपशान्त भाव है, वही क्षमाशील है - उपसमं खु क्योंकि एक ओर यह अहिंसा व्रत का अचूक साधन सामण्णं"। क्षमा ही आत्म विजय का साधन है। वह है - सर्वात्म मैत्री भाव का - दूसरी ओर यह वीतराग भाव के उदय का भी है। उपवास करके तपस्या करने शुक्ल ध्यान का प्रथम अवलम्बन है। वाल्मीकि कहते हैं: वाले निस्सन्देह महान हैं पर उनका स्थान उनके अनन्तर है समुत्पतितं क्रोधं क्षमा चैव निरस्यति । जो अपनी निन्दा, भर्त्सना और अपकार करने वाले को यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते ।। क्षमा कर देते हैं। क्षमा न तो दौर्बल्य है और न पलायन । -- जो हृदय में उत्पन्न क्रोध को क्षमा के द्वारा निकाल वह मनुष्य की मानसिक शुचिता और सदाचारिता का देता है वही पुरुष कहलाता है। महात्मा विदुर ने तो न प्रमाण है। “सत्यपि सामर्थ्य अपकार सहनं क्षमा" - सामर्थ्य जाने कितनी बार 'क्षमा' को प्रथम गुण गिनकर उसकी रहते हुए भी जो अपकार सहता है, वही क्षमा धर्म का महत्ता प्रतिपादित की है : क्षमया किं न साध्यते" - क्षमैपालन करता है। पुनः - का शान्तिरुत्तमा' अर्थादनर्थोऽक्षमो- यस्मै तस्मै नित्यं क्षमा "क्षाम्यति क्षमोप्याशु प्रति कर्तुकृतागस। हिता"। क्षमा हि परमं बलम् । भगवान् महावीर का कृतागसं तमिपन्ति क्षान्ति पीयूष संजुषः।" जीवन क्षमा का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। कितने परीषह व विष का पान कर सत्त्वस्थ रहना ही शिवत्त्व है। उपसर्ग आए पर उन्होंने क्षमा धर्म ही अपनाया। उनके शिव ने हलाहल का पान कर अपना प्रचार नहीं किया न समस्त साधना-वर्ष चुनौतियों में बीते। ग्वाला ने पीटा, गर्व, अपितु वे प्रसाद के शब्दों में यक्ष ने सताया, चण्डकोशिक ने डसा, अग्नि ताप में अडिग रहे, उन्हें गुप्तचर समझकर बंदी बनाया गया, नील गरल से भरा हुआ यह चन्द्र कपाल लिए हो, कटपूतना व्यंतरी के प्रतिशोध की सीमा न रही - संगम इन्हीं नीमिलित ताराओं में कितनी शांति पिए हो। देव ने कौन सा विघ्न नहीं डाला पर वे थे महावीर, यह शांति ही जीवन का अभिधेय है। शास्त्रों में जिन्होंने क्षमा धर्म नहीं छोड़ा। सबको आत्म भाव से क्षमा प्रथम और द्वितीय क्षमा का लक्षण इस प्रकार दिया गया करते हुए केवल ज्ञान प्राप्त किया। क्षमा का ऐसा उदाहरण विश्व में अन्यत्र दुर्लभ है। १०४ कषाय : क्रोध तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210376
Book TitleKashay Krodh Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanmal Lodha
PublisherZ_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
Publication Year1999
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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