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साध्वीरित्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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कलक्टर हैं, मेरी पत्नी अत्यधिक रूपवती-महिला है। मेरे चाचा जी संसारी कुबेर हैं, मेरे ताऊजी बेजोड़ शक्तिवान हैं, मेरे भाई चरित्र-चक्रवर्ती हैं और मेरी बहिन ज्ञानमती हैं, महामनीषी हैं। इन आकारों ने मुझे अद्भुत स्थिति में डाल दिया और मैं अपने को विलक्षण अनुभूत कर उठा। मुझे लगा कि मैं एक वृत्त के केन्द्र पर हैं और ये विभूतियाँ मेरी परिधि पर निर्बाध चक्कर लगा रही हैं। परिधि पर चक्कर लगाते रहने से इन सभी मदों की अनुभूतियाँ हुआ करती हैं किन्तु जब और ज्योंही प्रकाश का उदय हुआ त्यों ही तत्काल वे परिधि के समग्र आकार विलीन हो गये। कुछ समय के पश्चात् आँखें बन्द करके देखा तो लगा कि परिधि का संसार ही मिट गया है और वहाँ केन्द्र का गहरा आलोक ही आलोक पहरा दे रहा है । सच है जीवन की कोठरी का अंधकार मिटता है ज्ञानालोक से और ज्ञानालोक जगाने से अज्ञान में स्थिर सारे अहंकार स्वयं मिट जाते हैं और जीवन आलोक से भर जाता है तब किसी आकार और विकार की सम्भावना ही नहीं रह जाती।"
__ मद से मन मैला हो जाता है । मन का मल निर्मल हो, इसके लिए आवश्यक है मान का मिटना। प्राणी-प्राणी में मेल तभी होगा, कुटुम्ब की भावना तभी जाग्रत होगी, कलह तभी सुलह में परिणत होगी जब हमारे मन से मान का पूर्णतः विसर्जन हो जाएगा।
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माया कषाय कपट का अपर नाम है माया । मन, वाणी और करनी में इकसारता का अभाव माया कषाय को जन्म देता है। किसी प्राणी के मन में कुछ है, उसी को वह कहता कुछ और है और करता तो सब कुछ और ही है ऐसी स्थिति में उसकी चर्या मायावी कहलाती है। प्राणी का स्वयंजात गुण है आर्जवत्व । ऋजोर्भावः आर्जवम् अर्थात् ऋजुता-सरलता को ही आर्जव कहा है । अनार्जवी चर्या से जीवन जटिलताओं से भर जाता है।
इस प्रकार कपटाचार माया-कषाय का ही परिणाम है । माया की महिमा पन्द्रह अवस्थाओं में परिगणित की गई है । यथा(१) माया (२) उपाधि
(३) निकृति (४) वलय (५) गहन
(६) नूम (७) कल्क (८) कुरूप
(E) जिह्मता (१०) किल्विषिक (११) आदरणता (१२) गृहनता (१३) वंचकता
(१४) प्रतिकुंचनता (१५) सातियोग कपटाचार से माया, ठगे जाने योग्य व्यक्ति के समीप जाने का विचार से उपाधि, छलने के अभिप्राय से अधिक सम्मान करने से निति. वक्रतापर्ण वचन योग से वलय. ठाने के वि गूढ़ भाषण करने से गहन, ठगाई के उद्देश्य से निकृष्टतम कार्य करने से नूम, दूसरे को हिंसा के लिए उभारने से कल्क, निन्दित व्यवहार से कुरूप, ठगाई के लिए कार्य मन्द करने से जिह्मता, भांडों की भाँति कुचेष्टा करने से किल्विषिकी, अनिच्छित कार्य भी अपनाने से आदरणता, अपनी करतूत को छिपाने का प्रयत्न करने से गृहनता, ठगी से वंचकता, किसी के सरल रूप से कहे गये वचनों का खण्डन करने से प्रतिकुंचनता तथा उत्तम वस्तु में हीन वस्तु मिश्रित करने से सातियोग नामक विभिन्न अवस्थाएँ उभर कर समक्ष आती हैं ।
कषाय कौतुक और उससे मुक्ति : साधन और विधान : डॉ० महेन्द्रसागर प्रचंडिया | १२५
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