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सुख का मार्ग बताऊं और इनका उद्धार करूं, इस प्रकार की विश्वकल्याण की प्रबल भावना वाले भव्य प्राणी के ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है।
इस तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध होने में सोलह भावनाएं कारण हैं। परन्तु इन सोलह भावनाओं में दर्शन विशुद्धि भावना ही मुख्य है। दर्शन विशुद्धि भावना पूर्ण होने पर अन्य भावनाएं सहचरी के रूप में आ जाती हैं। किसी के दर्शन विशुद्धि के साथ पन्द्रह भावनाएं सहचरी होने से सोलह भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है, किसी के केवल दर्शन विशुद्धि मात्र एक भावना से ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हो जाता है। किन्हीं के दर्शन विशुद्धि के साथ अन्य कुछ भावनाओं के कारण तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है ।
भरत तथा ऐरावत क्षेत्रों के तीर्थंकर पांच कल्याणक वाले ही होते हैं क्योंकि भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में होनहार तीर्थंकर देवगति या नरकगति से आते हैं, यद्यपि इस अवसर्पिणी में हुए भरत क्षेत्र सम्बन्धी सभी तीर्थंकर स्वर्गगति से आकर उत्पन्न हुए थे। चूंकि देवगति और नरकगति में तीर्थंकर प्रकृति का सत्त्व रहता है, अतः वहां से आकर तीर्थंकर होने वाला मनुष्य पांच कल्याणक वाला तीर्थंकर होता है । स्वर्ग से आने वाले होनहार तीर्थंकर जीव की माला नहीं मुरझाती जबकि अन्य देवों की माला स्वर्गगति छूटने के छह माह पूर्व मुरझा 'जाती है। नरकगति से आने वाले होनहार तीर्थंकर के नरकायु के छह माह शेष रहने पर देव जाकर उसके उपसर्गों का निवारण करते हैं।
तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में सम्यग्दृष्टि जीव को ही होता है। भरत क्षेत्र में इस समय केवली या श्रुतकेवली का अभाव होने के कारण, तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं हो सकता है। ज्ञानकल्याणक की विशेष महिमा तीर्थंकर प्रकृति का वास्तविक उदय 'केवल ज्ञान' प्राप्त होने पर ही होता है, पूर्णज्ञानी होने के पूर्व छद्मस्थ काल में वे उपदेश नहीं देते हैं, जबकि जीवों का वास्तविक कल्याण तीर्थंकर के उपदेशों से ही होता है। यही कारण है कि णमोकार मंत्र में सर्वप्रथम "णमो अरिहन्ताणं" अरहन्तों को नमस्कार बोलते हैं, क्योंकि भगवान की अरिहन्त अवस्था से ही सर्वाधिक लोककल्याण उनकी दिव्यध्वनि द्वारा होता है। लोककल्याण की जिस प्रबल भावना के कारण तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया था वह अरहन्त अवस्था में ही साकार होती है इसलिए तीर्थंकर के ज्ञान कल्याणक का विशेष महत्त्व है ।
दो कल्याणक वाले तीर्थंकर - विदेह क्षेत्र में जो तीर्थंकर होते हैं, उनमें कुछ पूर्वभव में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर चुकने वाले होते हैं, उनके तो पांचों कल्याणक होते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी तीर्थंकर होते हैं जो उसी मनुष्य भव में गृहस्थ अवस्था में रहते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करते हैं। चरम शरीरी होने से उसी भव में मुक्त होता है अतः उनके तप (दीक्षा) ज्ञान और मोक्ष ये तीन कल्याणक ही होते हैं। वहां कुछ ऐसे भी मनुष्य होते हैं जिन्होंने मुनि अवस्था धारण कर ली थी। उसके बाद मुनि अवस्था में ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया, दीक्षा लेकर वे तपस्या तो पहिले से ही कर रहे थे, ऐसी स्थिति में उनके ज्ञान और मोक्ष ये दो ही कल्याणक होते हैं। इस प्रकार ज्ञानकल्याणक प्रत्येक स्थिति में होता है और अधिक समय के लिए होता है। मोक्ष तो अल्प समय में हो जाता है। गर्भ जन्म और तप ये तीन कल्याणक सभी तीर्थंकरों के नहीं होते हैं । इस दृष्टि से भी ज्ञानकल्याणक पूज्य एवं महत्त्वपूर्ण है ।
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यद्यपि अरहन्त अवस्था पाते ही तत्काल मोक्ष नहीं हो जाता परन्तु इस अवस्था में अनन्तसुख प्राप्त हो जाता है । इस दशा में क्षायिक ज्ञान, सम्यकत्व, चारित्र, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य इन नौ लब्धियों की प्राप्ति स्वयं में बड़ा अतिशय है। इन लब्धियों की प्राप्ति के कारण ज्ञानदान, अभयदान, बिना कवलाहार किए शरीर की स्वस्थता, देवों द्वारा पुष्पवृष्टि, दिव्य सिंहासन समवशरण आदि की उपलब्धि होती है ।
तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध न करके अन्य मुक्त होने वाले असंख्यात मनुष्य हैं। वे सभी केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, उन्हें सामान्य केवली कहा जाता है। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके केवलज्ञान प्राप्त करने वाले ही तीर्थंकर कहलाते हैं ।
तीर्थंकर केवली का तीर्थ प्रवर्तन काल आगामी तीर्थंकर होने तक चलता है। एक तीर्थंकर के काल में उसी क्षेत्र में दूसरे तीर्थंकर का सद्भाव नहीं होता । परन्तु सामान्य केवली एक ही क्षेत्र में एक साथ अनेक भी हो सकते हैं। यद्यपि सामान्य केवली भी उपदेश देते हैं लेकिन उनके लिए समोशरण की रचना नहीं होती है । उनके लिए गन्धकुटी की रचना होती है। उनके गणधर भी होते हैं । परन्तु जो सामान्य केवली केवल ज्ञान होते ही अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष चले जाते हैं, उनकी वाणी नहीं खिरती है अर्थात् उनका उपदेश नहीं होता है, इसी प्रकार सामान्य केवलियों में कोई मूक केवली भी होते हैं जो उपदेश नहीं देते और मुक्त हो जाते हैं ।
ज्ञान कल्याणक के चौबीस अतिशय तीर्थंकरों के जन्म के दस ही अतिशय होते हैं, ये अतिशय पंचकल्याणक वाले तीर्थंकरों के ही होते हैं । अन्य के अतिशय तीर्थंकर प्रकृति की अतिशयता व्यक्त करते हैं, इन अतिशयों से लोक के सुख तथा कल्याण का विशेष संबंध नहीं है जबकि केवलज्ञान संबंधी दस अतिशय तो ऐसे हैं जो सभी तीर्थकरों के होते हैं, तीर्थंकरों की अतिशयता तो प्रकाशित करते ही हैं इसके साथ ही चारों ओर सौ-सौ योजन सुकाल होना, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ईति भीति आदि मलेशकारक परिस्थितियों का अभाव होना, उनके
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