________________
000000000000
000000000000
10000
000088
gree
२३४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
सुइयों को एकत्र करना, धागे से बांधना, लोह के तार से बाँधना और कूट-पीटकर एक कर देना, अनुक्रम से बद्ध आदि अवस्थाओं का प्रतीक है ।
sational
२ - उद्वर्तन — कर्मों की स्थिति और अनुभाग बंध में वृद्धि उद्वर्तन अवस्था है ।
३ – अपवर्तन — स्थिति और अनुभाग बंध में ह्रास होना अपवर्तन अवस्था है ।
४ – सत्ता - पुद्गल स्कंध कर्म रूप में परिणत होने के बाद जब तक आत्मा से दूर होकर कर्म अकर्म नहीं बन जाते तब तक उनकी अवस्था सत्ता कहलाती है ।
५ – उदय — कर्मों का संवेदन काल उदयावस्था है ।
६ - उदीरणा – अनागत कर्मदलिकों का स्थितिघात कर उदय प्राप्त कर्मदलिकों के साथ भोगना उदीरणा है ।
किसी के उभरते हुए क्रोध को व्यक्त करने के लिए भी शास्त्रों में उदीरणा शब्द का प्रयोग आया है । पर दोनों स्थान पर प्रयुक्त उदीरणा एक नहीं है । उक्त उदीरणा में निश्चित अपवर्तन होता है। अपवर्तन में स्थितिघात और रस घात होता है। स्थिति व रस का घात कमी शुभ योगों के बिना नहीं होता । कषाय की उदीरणा में क्रोध स्वयं अशुभ प्रवृत्ति है । अशुभ योगों से कर्मों की स्थिति अधिक बढ़ती है कम नहीं होती । यदि अशुभ योगों से स्थिति हास होती तो अधर्म से निर्जरा धर्म भी होता पर ऐसा होता नहीं है । अतः कषाय की उदीरणा का तात्पर्य यह है कि — प्रदेशों में जो उदीयमान कषाय थी उसका बाह्य निमित्त मिलने पर विपाकीकरण होता है । उस विपाकीकरण को ही कषाय की उदीरणा कह दिया है ।
आयुष्य कर्म की उदीरणा शुभ-अशुभ दोनों योगों से होती है। अनशन आदि के प्रसङ्गों पर शुभ योग से और अपघात आदि के अवसरों पर अशुभ योग से उदीरणा होती है, पर इससे उक्त प्रतिपादन में कोई बाधा नहीं है क्योंकि आयुष्य कर्म की प्रक्रिया में सात कर्मों से काफी भिन्नता है ।
७ - संक्रमण - प्रयत्न विशेष से सजातीय प्रकृतियों में परस्पर परिवर्तित होना संक्रमण है । ८ - उपशम - अन्तर्मुहुर्त तक मोहनीय कर्म की सर्वथा अनुदय अवस्था उपशम है।
E-निधत्त--निधत्त अवस्था कर्मों की सघन अवस्था है। इस अवस्था में आत्मा और कर्म का ऐसा दृढ़ सम्बन्ध जुड़ता है जिसमें उद्वर्तन अपवर्तन के सिवाय कोई परिवर्तन नहीं होता ।
१० - निकाचित — निकाचित कर्मों का सम्बन्ध आत्मा के साथ बहुत ही गाढ है। इसमें भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । सब करण अयोग्य ठहर जाते हैं ।
निकाचित के लिए एक धारणा यह है कि इसको विपाकोदय में भोगना ही पड़ता है। बिना विपाक में भोगे निकाचित से मुक्ति नहीं होती। किन्तु यह परिभाषा भी अब कुछ गम्भीर चिन्तन माँगती है क्योंकि निकाचित को भी बहुधा प्रदेशोदय से क्षीण करते हैं । यदि यह न माने तो सैद्धान्तिक प्रसङ्गों पर बहुधा बाधा उपस्थित होती है जैसे-नरक गति की स्थिति कम से कम १००० सागर के सातिय दो भाग अर्थात् २०५ सागर के करीब है और नरकायु की स्थिति उत्कृष्ट ३३ सागर की है। यदि नरक गति का निकाचित बंध है तो करीब २०५ सागर की स्थिति को विपाकोदय में कहाँ कैसे भोगेंगे जबकि नरकायु अधिक से अधिक ३३ सागर का ही है जहाँ विपाकोदय भोगा जा सकता है । इससे यह प्रमाणित होता है कि निकाचित से भी हम बिना विपाकोदय में भोगे मुक्ति पा सकते हैं । प्रदेशोदय के मोग से निर्जरण हो सकता है।
निकाचित और दलिक कर्मों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि दलिक में उद्वर्तन अपवर्तन आदि अवस्थाएँ बन सकती हैं पर निकाचित में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं होता ।
आर्हत दर्शन दीपिका में निकाचित के परिवर्तन का भी संकेत मिलता है ।
शुभ परिणामों की तीव्रता से दलिक कर्म प्रकृतियों का ह्रास होता है और तपोबल से निकाचित का भी । 3
आचार्य श्री तुलसी : जैन सिद्धान्त दीपिका ४|४
Ra
१
२ वही ४|४
३ आर्हत दर्शन दीपिका, पृ० ८६
- सभ्य पगई मेवं परिणाम वसादवक्कमो होज्जा पापमनिकाईयाणं तवसाओ निकाइयाणापि ।
F
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org