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जैन संस्कृति का आलोक
मिलता है। कर्म किसी को नहीं छोड़ता, चाहे निर्धन हो या धनवान, बड़ा व्यक्ति हो या छोटा, सामान्य व्यक्ति हो या तीर्थंकर, राजा या प्रजा। इस प्रकार जो कुछ शुभ-अशुभ होता है सब कर्म ही स्वतंत्र रूप से करता है। कर्म ही देता है, कर्म ही हरता है और कर्म से टिका रहता है।
यदि कोई जैन भी उक्त एकान्तवाद को मानता है, तो जैन और अन्य मतों में भेद नहीं रहता है। राग-देष के भाव आत्मस्वभाव का निरंतर घात करते हैं परन्तु उनका कर्ता कर्म है जीव स्वयं नहीं, तो यह जैनों के सिद्धांत के विपरीत है। वे आत्मा के घातक हैं क्यों कि राग-द्वेष द्वारा आत्मा की निरंतर होती हुई हिंसा को नहीं जानते, अतः आत्मघाती हुए। जिनवाणी उन पर कोप करती है क्योंकि यह जिनवाणी का विरोध है। जिनवाणी तो कथंचित् कर्ता कहती है और वे सर्वथा कर्ता मानते हैं।
भगवान् आदिनाथ जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी थे, क्षायिक समकित के धनी थे। ८३ लाख पूर्व तक उन्होंने चारित्र ग्रहण नहीं किया और राज्य करते रहे। अज्ञानी की यह दलील होती है कि चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के कारण उनको चारित्र प्रगट नहीं हुआ। परन्तु यह तर्क संगत नहीं है। स्वयं की पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण उन्होंने चारित्र अंगीकार नहीं किया। कर्म के उदय के । कारण उनके चारित्र का अभाव था. ऐसा कथन उपचार मात्र है। स्वयं की कमजोरी के साथ ही उस समय कर्म का उदय भी है, ऐसा मात्र ज्ञान कराया है। अन्यथा कर्म आत्मा से भी बड़ा हो जायेगा, स्वयं भगवान् बन जायेगा। वास्तविक चारित्र तो स्वयं अपनी चैतन्यमूर्ति भगवान् आत्मा में लीनतारूप परिणाम है, जिसके प्रचुर आनंद में जीव लीन हो जाता है, स्थिर रहता है, वही सच्चा चारित्र है। कर्म की क्रिया कोई चारित्र नहीं है।
उसी तरह एकान्तवादी ऐसा मानता है कि श्रेणिक राजा जो क्षायिक समकित थे, तीर्थकर, प्रकृति को जिन्होंने
बांधा था, परन्तु नरकगति नामकर्म को भी बांधा था, जिससे नरक में गये। यह मान्यता एकान्त है। स्वयं के उल्टे पुरुषार्थ के कारण उन्होंने नरक गति का बंध किया। प्रथम नरक में गये वे भी अपनी स्वयं की उस समय की योग्यता से गये। कर्म के कारण गये या कर्म उनको खींचकर नरक ले गया, ऐसा नहीं है, कर्म तो जड़ है, आत्म स्वभाव में इसका अभाव है। जिसका जीव में अभाव है, वह जीव को नुकसान कैसे कर सकता है? उसी तरह एक व्यक्ति व्यापार कर काफी धन कमाता . है। वहां पैसा का आना या जाना, उसका तो आत्मा कदापि कर्ता नहीं होता, परन्तु इस धन संबंधी लोभ या माया के परिणाम का वह जीव कर्ता अवश्य है। इसी प्रकार अन्य अन्य जगह भी सर्व अवस्थाओं में ऐसा ही। समझना। कर्म सिद्धांत व स्याद्वाद
स्याद्वाद के अवलम्बन से अनेक जैन सिद्धांत परम वैज्ञानिकता को प्राप्त होते हैं। वस्तु को एकान्त से जो समझते हैं, वह मिथ्या है। जैन दर्शन तो वस्तु जैसी है वैसा मानता है। द्रव्य से नित्य व शाश्वत है और कर्म व अन्य द्रव्यों से स्वतंत्र व भिन्न है। पर्याय में कर्म के अभाव या सद्भाव के निमित्त से पलटता है, यह सत्य है, परन्तु वस्तु कथंचित् नित्यानित्यात्मक है। ऐसा जान कर नित्य पर दृष्टि करना और कर्म के संयोग से बदलती दशा है तो अवश्य, परन्तु लक्ष्य करने का विषय नहीं है।
जैसा कि ऊपर कहा गया कि जीव के अज्ञानमय भाव का होना व कर्म बंधने का काल एक ही है, उसमें भिन्नता का अभाव है। इसलिए जब उसका एक बंध पर्याय की अपेक्षा से देखने में आता है तो जीव कर्म से बंधा है, ऐसा एक पक्ष है। उसी समय यदि जीव व पुद्गल कर्म को अनेक द्रव्य या भिन्न द्रव्य की अपेक्षा देखा जाय तो दोनों बिल्कुल अलग-अलग हैं। इसलिए
| कर्म सिद्धांत की वैज्ञानिकता
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