________________
ओसवाल जाति का इतिहास
अगरचन्द नाहटा
जाति का सम्बन्ध जन्म से होता है। जैन धर्म में जाति जन्म से न मानकर कर्म से मानो गई है । जबकि वैदिक धर्म में जाति की उच्च-नीचता जन्म पर निर्धारित है। वास्तव में देखा जाय तो एक ही माँ के जन्में हुए या यावत् मा एक ही साथ जन्में हुए दो बच्चों को प्रकृति, ध्वनि, रुचि, आकृति में भिन्नता पाई जाती है । इसलिये केवल जाति या वर्ण में जन्म लेने से ही उसे ऊँचा व नीचा मान लेना उचित प्रतीत नहीं होता है । सत्-कर्म के द्वारा नोच माने जाने वाली जाति में जन्मा हुआ मनुष्य भी पूजनीय हो जाता है । और असत्य कर्मों द्वारा उच्च वर्ण या जाति में उत्पन्न मनुष्य निन्दा योग्य बन जाता है । जैन धर्म के उत्तराधम्यन मूत्र में कहा है कि कर्मों अर्थात् कार्यों से ही मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद्र बनता है । किसी भी जाति में उत्पन्न हुए मनुष्य का महत्त्व उसके सद्गुणों एवं कार्यों से ही माना जाना चाहिये।
भगवान महावीर के अनुयायी सभी जाति एवं वर्गों के लोग थे। भगवान महावीर का अहिंसा का सिद्धांत समता पर आधारित है । अर्थात् सभी प्राणियों में आत्मा एक समान है उन्हें सुखों एवं दुःखों का वेदन या अनुभव भी समान रूप से होता है। जीवन सभी को प्रिय है, मरण और दुःख कोई नहीं चाहता है । इसलिये प्राणियों के साथ मैत्री और प्रेम का सम्बन्ध बनाये रखना भी अहिंसा है। धर्म में तो सभी को समान स्थान है। जो पालन करे वही उसका अधिकारी है, इसलिये जैन धर्म में हरीकेशी जैसे चाण्डाल भी दीक्षित हो सके, पर आगे चलकर ब्राह्मणों का प्रभाव जैन धर्म पर भी पड़ा और क्रमश: नीची मानी जाने वाली जातियों के लोग जैन धर्म में कम आने लगे, अतः संख्या वृद्धि रुक-सी गई।
जैन धर्म का प्रचार भगवान महावीर के समय तो पूर्व देश की ओर ही अधिक था। क्रमश: वह दक्षिण-पश्चिम की ओर भी
बढ़ने लगा। राजस्थान में उस समय श्रीमाल नगर जिसे मिनमाल भी कहते हैं, बहुत प्रसिद्ध व समृद्धिशाली नगर था। वे इस नगर के नाम से श्रीमाल जाति वालों के रूप में प्रसिद्ध थे । श्रीमाल नगर के पूर्व की ओर रहने वाले जैनी प्रागवाड़-पोरवाड़ जाति वाले कहलाये। श्रीमाल नगर से वहाँ का एक राजकुमार अपने यहां के एक श्रेष्ठी परिवार को लेकर एक ऊजड़ स्थान में गया । और वहां नगर बसाने का प्रयत्न किया। उस स्थान का नाम उवेश था या ओसिया पड़ा है। जिसे संस्कृत में उपकेश नगर भी कहा गया है। वहाँ रत्नप्रभु सूरि नामक पार्श्वनाथ परमरा के आचार्य पधारे । उन्होंने राजा और जनता को चमकार दिखाकर जैन धर्म के प्रति अनुरागी बना दिया। वहाँ के जो लोग जैनी बने, वे उस नगर के नाम से अन्यत्र जहाँ भी गये उएस-वंशीय या ओसवाल जाति के कहलाये। इस तरह ओसवाल जाति की स्थापना हुई, मानी जाती है ।
पार्श्वनाथ परम्परा के रत्नप्रभु सूरि नाम के कई आचार्य हो गये हैं क्योंकि कई गच्छों में राजवंशों की तरह एक ही नाम की पुनरावृत्ति होती रही। उपकेश-गच्छ-पट्टावली-प्रबन्ध आदि के अनुसार ओस वंश के प्रतिबोधक पहले रत्नप्रभु सूरि, महावीर निर्वाण के सत्तर वर्ष बाद ओसिया आये और ओसवाल जाति की स्थापना की । पर ऐतिहासिक दृष्टि से ओस वंश की स्थापना का समय इतना प्राचीन नहीं प्रतीत होता । ओसिया नगर में जो भी पुरातत्व मन्दिर आदि प्राप्त हैं उनमें आठवीं सदी का पहले का कोई नहीं है। वहाँ के महावीर जिनालय में भी सबसे प्राचीन शिलालेख ११वीं शताब्दी का प्राप्त है । अन्य प्रमाणानुसार भी जैन धर्म का राजस्थान में प्रचार सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही अधिक हुआ, यह कुबलक माला को प्रशस्ति से भी सिद्ध है। नाभिनंदनोद्धार प्रबंध और उपकेश-पदावली प्रबंध में, जो कि संवत् १३९३ के आसपास रचे गये हैं। सबसे पहले यह उल्लेख
वी. नि. सं. २५०३
१४३
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org