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ह वै बाह्यः प्राण उदत्येष ह्यनं चाक्षुषं प्राणमनुगृह्णानः ।' प्रश्नोपनिषद् ३।८। परिणामतः आदित्य व प्राणकी एक रूपता भी है । एक ही पदार्थ, देह प्रवर्तन हेतु, प्राणरूपसे अन्तः अवस्थित है, तो वही चक्षुको अनुगृहीत करने के लिए सूर्यरूपमें बहिः अवस्थित है। अतः प्राणकी भांति सूर्यको भी 'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च' (ऐ• आ० २।२।४) कहा है । सूर्यकी अर्चनाके कारण ही पुरुष शतायु है ।'
यह प्राण देवात्मक होता हुआ ऋषि रूप भी है, अतएव इसे कहीं विश्वामित्र तो कहीं वामदेव, कहीं भरद्वाज तथा कहीं वशिष्ठ नामोंसे भी अभिहित किया गया है, भले ही यह नाम रूढि न होकर अन्वर्थ हों। यथा-'प्रजा वै वाजः ता एष बिति एष उ एव बिभ्रद्वाज:7भरद्वाजः । तं देवा अब्रवन्नयं वै नः सर्वेषां वशिष्ठ इति । तस्येदं विश्वं मित्रमासीत्""तं देवा अब्रुवन्नयं वै नः सर्वेषां वाम इति ।.... (ऐ० आ०२।२।२.२)।
हिरण्यदनवेद नामक एक ऋषिने प्राणके देवात्मक स्वरूपको जाना था, तथा प्राणकी देवतारूपसे उपासना की थी। इस उपासनाका विपुल फल भी उसे प्राप्त हुआ। (ऐ० आ० १०३-१०४) एक ही प्राण कहीं सात, कहीं नव, कहीं दश तथा कहीं बारह प्रकारका बताया गया है। अस्तु-इस प्रकार इस आरण्यकमें प्राणकी अत्यन्त महिमा गाई गई है। इसके अनुसार जितनी ऋचायें हैं, जितने वेद हैं, जितने घोष हैं वे सब प्राणरूप हैं। प्राणको हो इन रूपोंमें समझना चाहिए तथा उसकी उपासना करनी चाहिए । किम्बहुना
'प्राणो वंश इति विद्यात्' (ऐ० आ० ३।१।४) अर्थात् लोकमें जैसे वंश गृहका धारक होता है वैसे ही यह प्राण देह गृहका धारक है। इस प्राणकी इतनी अधिक महिमाका महत्त्व तो तब बढ़ जाता है जब हम उसी शास्त्रमें वर्णित इसकी इयत्ताको देखते हैं। 'एतावता वै प्राणाः संमिता.' (ऐ० आ०१२।४) यह एक वाक्य खण्ड है जिसका विवेचन करते हुए सायण कहते हैं कि
___'प्राणवायवो हि देहस्यान्तह दयादूर्ध्व प्रादेशमात्रं संचरन्ति । मुखाबहिरपि सञ्चरन्तः प्रादेशमात्रेण संम्मिता भवन्ति ।' इन शतशः उपलब्ध निर्वचनोंसे सिद्ध होता है कि प्राणके इन गुणोंको जानकर तत्तद्रूपोंसे उसकी उपासना करनी चाहिए, मानारूपोंसे भावनाको दृढ़कर उपासना करनेसे फल भी तदनुरूप उपासकको प्राप्त होंगे।
देवासुर संग्राममें रिपुविजयकी कामनासे देवोंने ऐश्वर्यके प्रतीकके रूपमें इस प्राण देवताकी उपासना की थो, अतः विजयी हुए; और इसके विपरीत असुर उसे (प्राणदेवताको) असमृद्धिका हेतु समझ
१. एक एव पदार्थों देहं प्रवर्तयितुमन्तःस्थितो दृष्टिमनुगृहीतुं बहिः स्थित इति एतावदेव द्वयो
वैषम्यम् ।--सायण ।
य एष तपति । तं शतं वर्षाण्यभ्यार्चत्तस्माच्छतं वर्षाणि पुरुषायुषो भवन्ति-ऐ० आ० २।२।१ । ३. सप्त वैशीषन् प्राणाः (ऐ० आ० ११५।२) नव प्राणा आत्मैव दशमः (ऐ० आ० १३१७) नव वै प्राणाः
(ऐ० आ० ११३८) द्वादश विधा वा इमे प्राणाः (ऐ० आ०१५।१)। ४. सर्वा ऋचः सर्वे वेदाः सर्वे घोषा एकैव व्याहृतिः प्राण एव प्राणः ऋच इत्येव विद्यात्-(ऐ० आ०
२।२।१०)। ५ लोके यथा वंशो गृहस्य धारकस्तथैव प्राणोऽयं देहगृहस्य धारक इति भावः।-सायण ।
२७० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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