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तीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन-साधना एवं आचार
कुछ समय के लिए है, जब इसका प्रयोजन पूर्ण हो जाएगा तब नष्ट हो जाएगा या कहीं और स्थानान्तरित भी हो सकता है। भावनायोग में इस भाव को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार पक्षी सुबह होने पर वृक्ष को छोड़कर अपने रास्ते की तरफ निकल पड़ता है, उसी प्रकार प्राणी भी अपनी आयु पूर्ण होने पर अपनेअपने कर्मों के अनुसार अन्यान्य योनियों में उत्पन्न होता है । "
जैन-दर्शन में प्रतिपादित चतुर्गति रूप नारक-तिर्यंच- मनुष्य देव भी अनित्य भावना पर प्रकाश डालते हैं। जीव अपने कर्मों के अनुसार इन चारों गतियों में भ्रमण करता रहता है। कभी वह दुःख का अनुभव करता है तो कभी उसे सुख की प्राप्ति होती है। शरीर जब नाना प्रकार के रोगों से युक्त होता है, जरा - बुढ़ापा जब शरीर पर आक्रमण करना प्रारंभ कर देता है, तब जीव को दुःख का भान होता है, यद्यपि यौवनावस्था में स्वस्थ देह से युक्त होने पर उसे सुख की प्राप्ति सी होती है" लेकिन ये सामान्य ज्ञान की बातें हैं क्योंकि व्यक्ति न तो निरंतर यौवनावस्था में स्थिर रहता है और न ही सदैव स्वस्थ ही । जरा एवं बुढ़ापा शरीर को प्राप्त होता ही है और उसे रोगक्रांत भी होना पड़ता है। सुख-दुःख, जरा, रोग आदि भी जीव को अनित्यता का पाठ पढ़ाते हैं।
जैनेतर परंपराओं में भी अनित्य भावना का उल्लेख मिलता है। महाभारत में अनित्य भावना का विवरण इस प्रकार गया है - यह जीवन अनित्य है, पता नहीं इसका कब नाश हो जाए अत: इस अनित्य जीवन के प्रति किसी प्रकार का राग नहीं रखना चाहिए और जीवन को सफल बनाने वाले धर्म का आचरण युवावस्था में ही कर लेना चाहिए । १ जीवन में सुख और दुःख भी अनित्य भावना पर प्रकाश डालते हैं १२ ।
जैनों के समान बौद्ध परंपरा में भी अनित्य - भावना पर चिंतन हुआ है । जिस प्रकार जैनों ने शरीर को अनित्य माना है और व्यक्ति को इसके प्रति राग-द्वेष भाव नहीं रखने का संदेश दिया है कमोबेश वही स्थिति बौद्ध धर्म में भी है। संयुक्त निकाय में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध भिक्षुओं को अनित्य भावना के बारे में बताते हुए कहते हैं- भिक्षुओ ! चक्षु अनित्य है, क्षोत्र अनित्य है, घ्राण अनित्य है, जिह्वा अनित्य है, काया अनित्य है, मन अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःख है १३ । धम्मपद में कहा गया है कि संसार के सब पदार्थ अनित्य हैं, इस
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तरह जब बुद्धिमान पुरुष जान जाता है, तब वह दुःख नहीं पाता। यही मार्ग विशुद्धि का है । अर्थात् अनित्यता को जानकर व्यक्ति दुःखों से मुक्त हो जाता है । दुःख से मुक्त होने का तात्पर्य यह है किं वह निर्वाण या मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है।
वर्तमान में व्यक्ति अनित्य - भावना को नहीं समझने के कारण ही व्यामोह में फँसा हुआ है। वह निरंतर अपने कर्मरजों को संचित कर रहा है और बंध को मजबूत करता जा रहा है। धन, ऐश्वर्य, हित, मित्र आदि के लिए चिंतित है। दूसरे शब्दों में कहें कि व्यक्ति की स्थिति आश्चर्यजनक एवं दयनीय है। उसका शरीर नित्य प्रतिदिन जीर्ण-शीर्ण होता चला जा रहा है, किन्तु उसकी आशाएँ बढ़ती ही जा रही हैं। आयुजल छीज रहा है किन्तु विचार मलिन होते चले जा रहे हैं। मोह-क्षेत्र अत्यंत रुचिकर बना हुआ है, परंतु आत्महित का ध्यान तक नहीं है।
धर्माचार्यों, दर्शनाचार्यों आदि ने अनित्यता के बारे में जो कुछ बताया है, उसे जानकर, समझकर जीव को यह विचार करना चाहिए कि अगर वे अपना कल्याण चाहते हैं तो शीघ्र ही प्रयास आरंभ कर दें, अन्यथा पश्चात्ताप के अतिरिक्त हाथ कुछ नहीं लगेगा, क्योंकि जो समय बीत चुका है, वह वापस नहीं आ सकता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को अनित्य सुख का परित्याग करके नित्य सुख को धारण करने की अभिलाषा एवं प्रयास करना चाहिए। इस संबंध में मुनिप्रवर श्री आत्मारामजी का कहना है कि पर्याय रूप से सभी पदार्थ अनित्यता से युक्त हैं तथा अनित्यता का संदेश दे रहे हैं अतएव व्यक्ति को मोक्षगत नित्यसुख की अभिलाषा करनी चाहिए तथा पौद्गलिक अनित्य सुखों का त्याग करके आत्मिक नित्य सुख में प्रवेश कर सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी का पद ग्रहण करते हुए निर्वाण पद को प्राप्त कर लेना चाहिए । अर्थात् विद्या तथा चारित्र द्वारा निष्कर्म होते हुए जन्म मरण से रहित होकर सिद्ध पद को प्राप्त कर लेना चाहिए १५ ।
इस तरह हम देखते हैं कि अनित्य - भावना साधना का एक ऐसा सोपान है जिस पर आरूढ़ होकर साधक सिद्ध पद को प्राप्त कर सकता है। जैनों की मान्यता के अनुसार सिद्ध जन्म मरण से मुक्त होते हैं, अतः साधक भी जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर परमसुख की अवस्था में रमण करता है।
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