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________________ २३४ ऋषिभाषित और पालिजातक में प्रत्येक-बुद्ध की अवधारणा रूपी कुटिया के नाश, तीनों भवनों में जन्म की सम्भावना का छिन्न-भिन्न होना, संसाररूपी कूड़े-कचड़े का स्थान शुद्ध कर देना, आँसुओं के समुद्र को सुखा देना, हड्डियों की चार-दीवारी को तोड़ देना, संक्षेप में जन्म-मरण के चक्र से पूर्णतया मुक्त हो जाने के रूप में किया गया है। जातकों से प्रत्येक-बुद्धों के स्वरूप के विस्तृत और रोचक विवरण मिलते हैं। उनके कामतृष्णासे मुक्ति की तो बार-बार चर्चा है; यथा, महाजनकजातक' के अनुसार प्रत्येक-बुद्ध काम-संयोजनों को काटकर, शीलादि गुणों से युक्त, अकिंचन सुख की कामना करने वाले, शील का विज्ञापन न करने और बध-वन्धन से विरत होते हैं, और दस ब्राह्मण जातक उन्हें सदाचारी और मैथुनधर्म से विरत कहता है । पर इसके अतिरिक्त उनके बाह्य रूप, स्थान, जीवन-पद्धति आदि की भी चर्चा है। दस ब्राह्मण जातक में ही उन्हें एक ही बार भोजन करने वाला भी कहा गया है। धजविहेठ, कुम्भकार, धम्मद्ध, पानीय आदि जातको' से यह संकेत प्राप्त होत है कि ये प्रायः कुरूप होते हैं, हवा से नष्ट बादल और राह से मुक्त चन्द्रमा की तरह होते हैं, तथा सिर-मूड़े से लेकर दो अंगुल बाल वाले तक होते हैं। दरीमुख जातक' में प्रत्ये दारा आठ परिष्कार धारण करने की चर्चा है, यद्यपि ये आठ परिष्कार क्या थे यह स्पष्ट नहीं किया गया है। पानीय जातक के अनुसार प्रत्येक-बुद्ध काषाय-वस्त्रधारी होते और सुरक्त दुपट्टा धारण करते, काय-बन्धन बाँधते, रक्त-वर्ण उत्तरासङ्ग चीवर एक कन्धे पर रखते, मेघ-वर्ण पासुकूल चीवर धारण करते, भ्रमर-वर्ण मिट्टी का पात्र बाँयें कन्धे पर लटकाते, आदि । महाजनक जातक में भी कुछ इसी प्रकार का विवरण है; वहाँ भी इनके सिर-मुड़ाने, संघाटी धारण करने, एक काषाय वस्त्र पहनने, एक ओढ़ने और एक कन्धे पर रखने का उल्लेख है तथा मिट्टी का पात्र थैली में कन्धे पर लटकाने और हाथ में दण्ड लेने की चर्चा है। कासाव जातक काषाय वस्त्र के अतिरिक्त उनके द्वारा शस्त्र धारण करने व सिर पर टोपी पहनने की भी चर्चा करता है। बहुधा जातकों में उत्तर हिमालय का नन्दमूल या गन्धमादन-पर्वत प्रत्येक-बुद्धों का निवास स्थान कहा गया है। वे प्रत्येक-बोधि ज्ञान प्राप्त कर ऊपर उठकर आकाश मार्ग से अपने स्थान पर पहुँचते हैं और वहाँ उद्यानों में और मंगलशिलाओं आदि स्थानों पर बैठते हैं। प्रत्येक बुद्धों के स्थान के सन्दर्भ में जातकों में अनोतत्त-सरोवर की भी चर्चा है। सिरिकाल१. जातक ५३९, खण्ड ६, पृ० ६२ ( गाथा ११५ ) और ५०-५१ ( गाथा २२-२४)। २. जातक ४९५, खण्ड ४, पृ० ५७५ । ३. जातक ४९५, खण्ड ४, पृ० ५७५ । ४. जातक ३९१, खण्ड ३, पृ० ४५४; ४०८, खण्ड ४, पृ० ३८; २२०, खण्ड २, पृ० ३९२; ४५९, खण्ड ४, पृ० ३१५ । ५. जातक ३७८, खण्ड ३, पृ० ३९९ । ६. जातक ४५९, खण्ड ४, पृ० ३१५ । ७. जातक ५३९, खण्ड ६, पृ० ५९-६२ । ८. जातक २२१, खण्ड २, पृ० ३९५ । ९. जातक ३७८, खण्ड ३, पृ० ३९९; ४२१, खण्ड ४, पृ० १११; ४५९, खण्ड ४, पृ० ३१५; आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210308
Book TitleRushibhashit aur Palijatak me Pratyek Buddha ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Gond
PublisherZ_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf
Publication Year1991
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size2 MB
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