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ऋषि सम्प्रदाय के पांच सौ वर्ष
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पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी म० (आगमोद्धारक)
आपके पूर्वज मेडता (मारवाड़) के निवासी थे । लेकिन वर्षों से भोपाल (म० प्र०) में बस गये थे । आपके पिताश्री का नाम केबलचन्दजी और माता का नाम हुलासाबाई था । आपका जन्म सं० १९३४ में हुआ था। आपके एक छोटा भाई था। जिसका नाम अमीचन्द था। बाल्यकाल में माता का वियोग हो जाने से आप दोनों भाई मामा के यहाँ रहने लगे और पिताजी ने मुनिश्री पूनम ऋषिजी म. के पास भागवती दीक्षा ले ली थी।
एक बार आप अपने मामाजी के मुनीम के साथ अपने पिता श्री जी (श्री केवलऋषिजी म.) के दर्शनार्थ इच्छावर के निकट खेड़ी ग्राम में दर्शनार्थ आये । आप बाल्यकाल से धार्मिक वृत्ति वाले थे ही और पिताजी को साधुवेष में देखकर आपकी धार्मिकता को और वेग मिला। आपने भी दीक्षा अंगीकार करने का निश्चय कर लिया। पारिवारिक जनों ने रुकावट डालने का प्रयास भी किया लेकिन सफल नहीं हो सके।
सं० १९४४ फाल्गुन कृष्णा २ को श्री रत्न ऋषिजी म. ने आपको दीक्षित किया । आप बहुत ही प्रभावशाली, प्रखर बुद्धि और शास्त्रज्ञ विद्वान थे । आपने ऋषि सम्प्रदाय को सबल बनाया और सबसे महत्वपूर्ण कार्य ३२ आगमों को हिन्दी अनुवाद एवं शुद्ध पाठ सहित सम्पादित करना है। यह आगमोद्धार का कार्य आपने तीन वर्ष के अल्पकाल में ही पूरा कर दिया था। साहित्य सम्पादन के अतिरिक्त आपने ७० स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं । इनमें से कई ग्रन्थों की गुजराती, मराठी, कन्नड़, उर्दू भाषा में भी आवृत्तियाँ हुई हैं। पूज्य श्री ने कुल मिलाकर करीब ५० हजार पृष्ठों में साहित्य की रचना की है। आपके १२ शिष्य हुए।
__ आप पंजाब, दिल्ली, कोटा, बूंदी, इन्दौर आदि क्षेत्रों को फरसते हुये धूलिया पधारे और सं० १९६३ का चातुर्मास धूलिया में किया । इस चातुर्मास काल में आपके कान में तीव्र वेदना हो गई। अनेक उपचार कराने पर भी वह शान्त नहीं हुई । अन्त में प्रथम भाद्रपद कृ० १४ को आपने संथारा पूर्वक इस भौतिक देह का परित्याग कर दिया। आपकी पुण्य स्मृति में मुनि श्री कल्याणऋषि जी म० की सत्प्रेरणा से श्री अमोल जैन ज्ञानालय की धूलिया में स्थापना हुई। जिसके द्वारा साहित्य प्रकाशन का कार्य चल रहा है। कविकुल भूषण पूज्यपाद श्री तिलोकऋषि जी महाराज
आपकी जन्मभूमि रतलाम है। सं० १६०४ चैत्र कृ० ३ को आपका जन्म हुआ था। पिताश्री का नाम श्री दुलीचन्द जी सुराना और माता का नाम नानूबाई था । आप तीन भाई और एक बहिन थी। आपका नाम तिलोकचन्द जी था ।
सं० १६१४ में श्री अयवन्ताऋषि जी म. रतलाम पधारे। आपका वैराग्यरस से परिपूर्ण उपदेश सुनकर माता नानूबाई का वैराग्य भाव जाग्रत हो उठा। माताजी के दीक्षित होने के भाव जानकर बहिन हीराबाई भी दीक्षित होने को तैयार हो गई । माता और बहिन के दीक्षा लेने के विचार को
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