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५ / साहित्य और इतिहास: ५३
हैं उन्हें भी जैन - मान्यताके अनुसार धर्मकी कोटिमें रखा गया है। जैसे पानी छानकर पीना, रात्रि में भोजन नहीं करना, मद्य, मांस और मधुका सेवन नहीं करना, असावधानीसे तैयार किया हुआ भोजन नहीं करना, भोजनमें ताजा और ससत्व आटा, चावल, साग फल आदिका उपयोग करना, उपवास वा एकाशन करना, उत्तम संगति करना आदि इन सब प्रवृत्तियों को धर्मरूप ही मान लिया गया है तथा ऐसी प्रवृत्तियोंको अधर्म या पाप मान लिया गया है, जिनके द्वारा साक्षात् या परंपरासे हमारे शारीरिक स्वास्थ्यको हानि पहुँचनेकी सम्भावना हो या जो हमारे जीवनको लोकनिंद्य और कष्टमय बना रही हों। जुआ खेलना, शिकार खेलना और वेश्यागमन आदि प्रवृत्तियाँ इस अधर्मकी ही कोटिमें आ जाती हैं। जैन मान्यताके अनुसार अभक्ष्यभक्षणको भी अधर्म कहा गया है और अभक्ष्यकी परिभाषामें उन चीजोंको सम्मिलित किया गया है, जिनके खानेसे हमें कोई लाभ न हो अथवा जिनके तैयार करनेमें या खानेमें हिंसाका प्राधान्य हो अथवा जो प्रकृतिविरुद्ध हों या लौकिक दृष्टिसे अनुपसेब्य हों। जैन मान्यताके अनुसार अधिक खाना भी अघमें है और अनिच्छापूर्वक कम खाना भी अधर्म है। तात्पर्य यह है कि मानव जीवनकी प्रत्येक प्रवृत्तिको जैन-मान्यतामें धर्म और अधर्मकी कसौटीपर कस दिया गया है । आज भले ही पचड़ा कहकर इन सब बातोंके महत्त्वको कम करनेकी कोशिश की जाय, परन्तु इन सब बातोंकी उपयोगिता स्पष्ट है । पूज्य गाँधीजीका भोजनमें हाथ - चक्की से पिसे हुए ताजे आटेका और हाथसे कुटे गये चावलका उपयोग करनेपर जोर देना तथा प्रत्येक व्यक्तिको अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति में आवश्यकता, सादगी, स्वच्छता, सच्चाई आदि बातोंपर ध्यान रखनेका उपदेश देना इन बातोंकी उपयोगिताका ही दिग्दर्शन है।
इस प्रकार जैन समाज जहाँ इस बातपर गर्व कर सकती है कि उसकी मान्यतामें मानव-जीवनको छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी प्रत्येक प्रवृत्तिको धर्म और अधर्मकी मर्यादामें बांधकर विश्वको सुपथपर चलनेके लिए सुगमता पैदा की गई है. वहां उसके लिए यह बड़े सन्तापकी बात है कि इन सब बातोंका जैन समाजके जीवन में प्रायः अभाव-सा हो गया है और दिन-प्रतिदिन होता जा रहा है तथा जैन समाजकी कोधादि कषायरूप परिणति और हिंसादि पापमय प्रवृत्ति आज शायद ही दूसरे समाजोंकी अपेक्षा कम हो । जो कुछ भी धार्मिक प्रवृत्ति आज जैन समाजमें मौजूद है वह इतनी अव्यवस्थित एवं अज्ञानमूलक हो गई है कि उस प्रवृत्तिको धर्मका रूप देने में संकोच होता है।
जैन समाज में पूर्वोक्त धर्मको अपने जीवनमें न उतारनेकी यह एक बुराई तो वर्तमान है ही, इसके अतिरिक्त दूसरो बुराई जो जैन समाज में पाई जाती है, वह है खाने-पीने इत्यादिके हुआ-छूत भेद की। जैन समाज में वह व्यक्ति अपनेको सबसे अधिक धार्मिक समझता है, जो खाने-पीने आदिमें अधिक-से-अधिक हुआ-छूतका विचार रखता हो। परन्तु भगवान ऋषभदेवने द्वारा स्थापित और शेष तीर्थकरों द्वारा पुनरुजीवित धर्म में इस प्रकारके छुआछूतको कतई स्थान प्राप्त नहीं है । कारण कि धर्म मानव-मानव में भेद करना नहीं सिखलाता है और यदि किसी धर्मसे ऐसी शिक्षा मिलती हो तो उसके बराबर अधर्म दुनियामें दूसरा कोई नहीं हो सकता। हम गर्वपूर्वक कह सकते हैं कि जैन तीर्थंकरों द्वारा प्रोक्त धर्म न केवल राष्ट्रधर्म ही हो सकता है, अपितु वह विश्वधर्म कहलानेके योग्य है । परन्तु छुआछूतके इस संकुचित दायरेमें पड़कर वह एक व्यक्तिका भी धर्म कहलाने योग्य नहीं रह गया है, क्योंकि यह भेद न केवल राष्ट्रीयताका ही विरोधी है, बल्कि मानवताका भी विरोधी है और जहाँ मानवताको स्थान नहीं, वहाँ धर्मको स्थान मिलना असम्भव ही है।
यद्यपि ये सब दोष जैन समाजके समान अन्य धार्मिक समष्टियोंमें भी पाये जाते हैं, परन्तु प्रस्तुत
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