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जो दुर्धर रथ से योजित हुई दौड़ रही थीं, वे निश्चल होकर मनायी जाती है। तीर्थंकर ऋषभ देव के शिव गति गमन की तिथि ... मौद्गलानी की और लौट पड़ी ।"
भी यही है जिस दिन ऋषभ देव को शिवत्व उत्पन्न हुआ था। उस दिन समस्त साधु संघ ने दिन को उपवास रखा था तथा रात्रि में जागरण कर के शिव गति प्राप्त ॠषभ देव की आराधना की, इस रूप में यह तिथि शिव रात्रि के नाम से प्रसिद्ध हुई ।
ऋग्वेद की प्रस्तुत ऋचा में 'अरि दमन' कर्मरूप शत्रुओं का दमन करने के लिये प्रयुक्त हुआ है। गायों का तात्पर्य इन्द्रियों से है और दुर्धर रथ का मन्तव्य शरीर से है आदि तीर्थंकर ऋषभ देव की अमृत वाणी से अस्थिर इन्द्रियाँ स्थिर होकर मुद्गल की स्वात्म वृत्ति की ओर छौट आय
ऋषभ देव की ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर महादेव के रूप में स्तुति की गई है। सर्व प्रथम अमरत्व पाने वाले के रूप में और अहिंसक आत्म साधकों के रूप में उनकी स्तुति की गयी है ।
ऋग्वेद में ऋषभ देव स्तुत्य हैं - मधुर भाषी, बृहस्पति, स्तुति योग्य ऋषभ देव को पूजा साधक मन्त्रों द्वारा वर्धित करो, वे अपने स्तोता को नहीं छोड़ते । एक जगह कहा गया है तेजस्वी ऋषभ के लिये स्तुति प्रेरित करो । ऋग्वेद के ही रुद्र सूक्त में एक ऋचा है- हे वृषभ ! ऐसी कृपा करो कि हमें कभी नष्ट न हों ।
अन्तिम स्तुति जहाँ की गई है वहाँ वृषभ का पाँच बार उल्लेख आया है । रुद्र को आर्हत् शब्द से सम्बोधित किया गया है । यह आर्हत उपाधि ऋषभ देव की ही हो सकती है क्योंकि उनका प्रतिपादित धर्म आहेत धर्म के नाम से विश्व विख्यात है।
शतरुद्रीय स्तोत्र में रुद्र की स्तुति के मन्त्र हैं जिनमें रुद्र को शिव, शिवतर तथा शंकर कहा गया है ।५ श्वेताश्वतर उपनिषद में रुद्र को ईश, महेश्वर, शिव और ईशान कहा गया है। मैत्रायणी उपनिषद् में इन्हें शम्मु कहा गया है। पुराणों में शिव को महेश्वर, त्र्यंबक, हर, वृषभध्वज, भव, परमेश्वर, त्रिनेत्र, वृषांक, नटराज, जटी, कपर्दी, दिग्वस्त्र, यती, आत्मसंयमी, ब्रह्मचारी, ऊर्ध्व रेता आदि विशेषणों से अभिहित किया गया है। यदि ध्यान से देखा जाय तो यह सभी विशेषण ऋषभ देव तीर्थंकर के ही प्रतीत होते हैं। शिव पुराण में शिव का आदि तीर्थकर ऋषभ देव के रूप में अवतार लेने का उल्लेख है ।" प्रभास पुराण में भी इसी प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है ।"
आदि देव शिव और आदि तीर्थंकर के स्वरूप, गुण, तप, ज्ञान और चैतन्य में इतना साम्य है कि ऐसा लगता ही नहीं कि इनका पृथक् पृथक् अस्तित्व हो । अधिक उपयुक्त यह लगता है व्यक्तित्व एक ही है जिसे भिन्न भिन्न रुचि और भिन्न धारणा के लोग भिन्न नामों से जानते और मानते हैं।
शिव की जन्म तिथि शिव रात्रि के रूप में व्रत रखकर
कवि वृषभो युक्तआसी
अवावचीत् सारथिरस्य केशी ।
दुधेर्युक्तस्य द्रवतः सहानसः
ऋच्छन्तिष्मा निष्पदो मुद्गलानीम् ॥ ऋग्वेद १०/१०/२/६ अनर्वाणं ऋषभं मन्द्रजिह्नं, वृहस्पतिं वर्धया नव्य मर्के ।
प्राग्नये वाचमीरय ऋग्वेद १०/१८७ एव वज्रो वृषभ चेकितान यथा देव न हृणीयं न हंसी । ऋग्वेद रुद्रसूक्त २/३३/१५ यजुर्वेद (वैतिरीय संहिता) १/८६ वाजसनेयी ३/५७/६३
श्रीमद् जयन्तसेनरि अभिनन्दन ग्रंथ विश्लेषण
ऋग्वेद १/१९०/१
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शिव को कैलाशवासी कहा जाता है। तीर्थंकर ऋषभ के तप और निर्वाण का क्षेत्र कैलाश पर्वत है। जिस प्रकार शिव ने तप में विघ्न उपस्थित करनेवाले कामदेव को नष्टकर शिवा से विवाह किया। उसी प्रकार तीर्थंकर ऋषभ देव ने मोह को नष्ट कर शिवा देवी के रूप में शिव सुन्दरी मुक्ति से विवाह किया ।
शिव के अनुयायी गण कहलाते हैं और उनके प्रमुख नायक शिव के पुत्र गणेश थे। उसी प्रकार ऋषभ देव के तीर्थ में भी उनके अनुयायी मुनि गण कहलाते थे। जो गण के अधिनायक होते थे वे गणाधिप, या गणधर कहलाते थे। ऋषभ देव के प्रमुख गणधर भरत पुत्र वृषभसेन थे।
पाणिनि ने अ इ उ ण आदि सूत्रों को महेश्वर से प्राप्त हुआ बताया है। जैन परम्परा ऋषभ देव को महेश्वर मानती है। उन्होंने सबसे पहले अपनी पुत्री 'ब्राह्मी' को ब्राह्मी लिपि अर्थात् अक्षर विद्या का ज्ञान कराया था ।
शिव का वाहन वृषभ है जबकि ऋषभ देव का चिह्न वृषभ है। शिव त्रिशूल धारी हैं। जैन परम्परा में वह त्रिशूल सम्यग् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चरित्र रूप रलत्रय का प्रतीक है।
भागवत पुराण में ऋषभ देव को विष्णु का आठवाँ अवतार माना गया है । गायत्री मन्त्र द्वारा ऋषभ देव की ही स्तुति की गयी है । अथर्व वेद में परम ऐश्वर्य के लिये ऋषभ देव की विद्वानों के जाने योग्य मार्गों से बड़े ज्ञान वाले अग्नि के समान स्तुति की गयी है (अथर्ववेद ९/४/३ )
अथर्ववेद में ऋषभ देव की पापों से मुक्त करने वाले देवताओं में अग्रगण्य एवं भव सागर से पार जाने का मार्गदर्शन करने वाले तेजस्वी व्यक्तित्व के रूप में स्तुति की गई है : 'पापों से मुक्त पूजनीय देवताओं में सर्व प्रथम तथा भव सागर के पोत को मैं हृदय से आव्हान करता हूँ। हे सहचर बन्धुओं ! तुम आत्मीय श्रद्धा द्वारा उसके आत्म बल और तेज को धारण करो ।
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शिवपुराण ४/४७-४८
इत्यं प्रभाव ऋषमोऽवतारः शंकरस्य मे । सतां गतिर्दीनबन्धुर्नवमः कथितस्तव ।। ऋषभस्य चरित्रं हि परमं पावनं महत् । स्वर्ग्ययशस्यमायुष्यं श्रोतव्यं च प्रयत्नतः ।। कैलाशे विमले रम्ये वृषमोऽयं जिनेश्वरः । ! चकार स्वावातारः च सर्वज्ञ: सर्वगः शिवः ॥
प्रभासपुराण ४९ अहोमुचं वृषमं यज्ञियानां, विराजन्तं प्रथममध्वराणाम् । अण्जां न पातमश्विना हुंवे धिय, इन्द्रियेण इन्द्रियं दत्तमोजः । अथर्ववेद कारिका १९/४२/४
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