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________________ मुनि नथमल : उपनिषद्, पुराण और महाभारत में श्रमण-संस्कृति का स्वर : ५७५ । 'भारत के इन प्रथम दार्शनिकों को उस युग के पुरोहितों में खोजना उचित न होगा, क्योंकि पुरोहित तो यज्ञ को एक शास्त्रीय ढांचा देने में दिलोजान से लगे हुए थे. जबकि इन दार्शनिकों का ध्येय वेद के अनेकेश्वरवाद को उन्मूलित करना ही था जो ब्राह्मण यज्ञों के आडम्बर द्वारा ही अपनी रोटी कमाते हैं उन्हीं के घर में ही कोई ऐसा व्यक्ति जन्म ले-ले जो इन्द्र तक की सत्ता में विश्वास न करे, देवताओं के नाम से आहुतियां देना जिसे व्यर्थ नजर आए-बुद्धि नहीं मानती. सो अधिक संभव नहीं प्रतीत होता कि यह दार्शनिक चिन्तन उन्हीं लोगों का क्षेत्र था जिन्हें वेदों में पुरोहितों का शत्रु अर्थात् अरि, कंजूस, ब्राह्मणों को दक्षिणा देने से जी चुराने वाला-कहा गया है. उपनिषदों में तो, और कभी-कभी ब्राह्मणों में भी, ऐसे कितने ही स्थल आते हैं जहाँ दर्शन अनुचिन्तन के उस युग-प्रवाह में क्षत्रियों की भारतीय संस्कृति को देन स्वत: सिद्ध हो जाती है .' अपने पुत्र श्वेतकेतु से प्रेरित हो आरुणि पंचाल के राजा प्रवाहण के पास गया. तब राजा ने उससे कहा- मैं तुम्हें जो आत्म-विद्या और परलोक-विद्या दे रहा हूँ, उस पर आज तक क्षत्रियों का प्रशासन रहा है. आज पहली बार बह ब्राह्मणों के पास जा रही है. परा और अपरा माण्डुक्य उपनिषद् में विद्या के दो प्रकार किए गए हैं, परा और अपरा. उसमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष—यह अपरा है. जिससे अक्षर-परमात्मा का ज्ञान होता है, वह परा है.४ महर्षि बृहस्पति ने प्रजापति मनु से कहा-'मैंने ऋक्, साम और यजुर्वेद, अथर्ववेद, नक्षत्र-गति, निरुक्त, व्याकरण, कल्प और शिक्षा का भी अध्ययन किया है तो भी मैं आकाश आदि पांचों महाभूतों के उपादान कारण को न जान सका.'५ प्रजापति मनु ने कहा-'मुझे इष्ट की प्राप्ति हो और अनिष्ट का निवारण हो, इसी के लिये कर्मों का अनुष्ठान आरम्भ किया गया है. इष्ट और अनिष्ट दोनों ही मुझे प्राप्त न हों, इसके लिये ज्ञानयोग का उपदेश दिया गया है. वेद में जो कर्मों के प्रयोग बताए गए हैं, वे प्रायः सकाम भाव से युक्त हैं. जो इन कामनाओं से मुक्त होता है, वही परमात्मा को पा सकता है. नाना प्रकार के कर्म मार्ग में सुख की इच्छा रखकर प्रवृत्त होने वाला मनुष्य परमात्मा को प्राप्त नहीं होता.६ पिता-पुत्र संवाद ब्राह्मण पुत्र मेधावी मोक्ष-धर्म के अर्थ में कुशल था. वह लोक-तत्त्व का अच्छा ज्ञाता था. एक दिन उसने अपने स्वाध्याय परायण पिता से कहा : 'पिता ! मनुष्यों की आयु तीव्र गति से बीती जा रही है. यह जानते हुए धीर पुरुष को क्या करना चाहिए ? तात ! १. वही पृष्ठ १८३. २. छान्दोग्य उपनिषद् ५।३।७ पृष्ठ ४७६. यथा मा त्वं गौतमावदौ यथेयं न प्राक् त्वत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणानगच्छति तस्मादु सर्वेषु लोकेपु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूदिति तस्मै होवाच. (ख) बृहदारण्यक ६।२।८ पृष्ठ १२८७. यथेयं विद्येतः पूर्व न कस्मिंचन ब्राह्मण उवास तां त्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि. ३. १११४. ४. १२११५. ५. महाभारत शान्तिपर्व २०१८ (प्रकाशक-गीताप्रेस गोरखपुर), ६. महाभारत शान्तिपर्व २०१॥ १०.११. SINOSENSIEBENDSENEDUNOSENESNENESSERE Jain EN aorary.org
SR No.210296
Book TitleUpnishad puran aur Mahabharat me Jain Sanskruti ke Swar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Mithology
File Size683 KB
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