________________ यह दुःख संसार में नाना गतीयों में भटकता रहता है।१४ ऐसे कार्य करना सरल है जो बुरे हैं और अपने लिए अहितकर है। जो हितकारी और अच्छे हैं, उनमें हमारी बुद्धि ही नहीं जाती। क्योंकि उनका करना अत्यन्त कठिन होता है "न तं अरी कंठछेता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा।" अर्थात "दुराचार में प्रवृत्त आत्मा अपना जितना अनिष्ट करता है, उतना अनर्थ गला काटने वाला शत्र भी नहीं करता।" मनुष्य का जन्म अशाश्वत और दु:खों का घर है तथा यह संसार अनित्य और सुख रहित है।..... सुख कोई सचा पदार्थ नहीं है फलत: सब तृष्णाओं, कर्मो को छोडे बिना शांति नहीं मिल सकती।१५।। मोक्ष और मोक्षोपाय अज्ञान रुप दु:ख की निवृत्ति का नाम मोक्ष है। जैनदर्शन में आत्मा की विशुद्ध एवं स्वाभाविक (कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:) तथा सम्पूर्ण कर्मो की समाप्ति का नाम मोक्ष माना है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण को (निव्वानं परमं वदन्ति बुद्धा-धम्मपद-गा०१८४) मोक्ष कहा है। आत्यन्तिक दु:ख की निवृत्ति ही 'निर्वाण' है। 'निर्वाण' ज्ञान के उदय से होता है। गीता में नैष्कर्म्य, निस्वैगुण्य, कैवल्य, ब्रह्मभाव, ब्राह्मी स्थिति, ब्रह्मनिर्वाण को मोक्ष कहा है। वेदों के पढने में यज्ञों में और दानों में फल निश्चित हैं, पर ब्रह्मज्ञानी उस सबको उल्लंघन कर जाता है और वह सनातन परमपद को प्राप्त कर लेता है।१६ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की योग्यता को जब व्यक्ति प्राप्त कर लेता है तो वह मोक्षपथ या मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाता है। उत्तराध्ययन के अट्ठाइसवें अध्ययन में मोक्षमार्ग का भली प्रकार से चित्रण किया गया है। तथा कहा है: नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। - चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ। अर्थात मोक्षार्थी ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र से कर्मास्त्रव को रोकता है और तप से विशेष शुद्धि करता है। 26, 30, 31, 32, 33, 34 में अध्ययनों क्रमश: आत्मोत्थानकारी प्रश्नोत्तर, तपश्चर्या का स्वरुप और विधि चारित्र की संक्षिप्त विधि प्रमाद की व्याख्या और उससे बचकर मोक्ष प्राप्त करने का उपाय, कर्मो के भेद-प्रभेद, गति, स्थिति आदि छ: लेश्याओं का स्वरुप, फल, गति, स्थिति आदि और 35 वें अध्ययन में नियम-उपनियम बतलाये गये है। गीता के सोलहवें अध्याय में परमात्म-साक्षात्कार के हेतुओं का विवेचन किया है। यद्यपि दैवी सम्पदा है। "ज्ञानयोग व्यवस्थिति" में स्थित व्यक्ति सच्चिदानन्द को प्राप्त कर लेता है। दैवी सम्पदाएँ मोक्ष का कारण है और आसुरी सम्पदा संसाररुप एवं बन्धन का कारण मानी गई है।१७ मुक्ति अथवा मोक्ष सर्वोपरि आत्मा के साथ संयुक्त हो जाने का नाम है। डॉ. राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन में लिखा है कि मुक्त व्यक्ति समस्त पुण्य-पाप से परे है। पुण्य भी पूर्णता के रुप में परिणत हो जाता है। मुक्त पुरुष जिवन के केवल नैतिक नियम से ऊपर उठकर प्रकाश, महत्ता और अध्यात्मिक जीवन की शक्ति को पहंचता है।१८ डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने जैनदर्शन में मुक्ति मूल का साधन 'स्वपर-विवेकज्ञान' कहा है। अत: यह सिद्ध है कि आत्यन्तिक दु:ख की निवृत्ति और तत्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। बौद्धधर्म का साधना पक्ष आष्टांगिक मार्गरुप है—(१) सम्यक्दृष्टि, (2) सम्यक्संकल्प, (3) सम्यक्वचन, (4) सम्यक्व्यवहार, (5) सम्यक्आजीव, (6) सम्यक्व्यायाम, (7) सम्यक्स्मृति, (8) सम्यक्समाधि। ये दु:ख-निरोध के कारण है। पण्डितवग्ग में निर्वाण के विषय में लिखा है "खीणासवा जुतीमंतो ते लोक परिनिब्बुता"| अर्थात जिनके चित का मैल नष्ट हो गया है, जो दीप्तिमान सिंह का चर्म धारण करने से ही सिंह नहीं बना जा सकता। 237 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org