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ईश्वर और मानव
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ईश्वर और मानव
* डॉ० कृष्ण दिवाकर, एम० ए०, पी-एच० डी० [प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, पूना विश्वविद्यालय, पूना-७)
प्रातःकाल का समय था । एक महान योगी के आगमन से सम्पूर्ण गाँव उल्लसित था । गाँव के बाहर शिवजी के मन्दिर के प्रांगण के अधिकांश स्त्री, पुरुष बड़ी संख्या में उपस्थित थे। थोड़ी ही देर में स्वामीजी वहाँ पधारे । स्वामीजी का वह तेजःपुंज मुख, काषाय वस्त्रों से विभूषित गठा हुआ शरीर, उनके नेत्रों में झलकने वाली दिव्य ज्योति, हास्यवदन से विकीर्ण सन्तोष आदि से समस्त जनता मन्त्रमुग्ध हो गई। सभी ने स्वामीजी को सश्रद्धा प्रणाम किया और उत्तर में स्वामीजी ने भी अपना दाहिना हाथ उठाकर कृपाछत्र का संकेत दिया। ईश्वर को अभिवादन कर स्वामीजी ने अपनी अमृतवाणी का प्रकाशन प्रारम्भ किया। सभी श्रोतागण अत्यन्त विमुग्ध एवं शान्त थे। स्वामीजी ने कहा"मनुष्य जन्म कई प्रकार के पुण्यों के फलस्वरूप हमें प्राप्त हुआ है । हमें चाहिए कि सांसारिक मोहजाल में फँसकर अपने इस मूल्यवान जीवन का नाश न करें। प्रत्येक दिन अधिक से अधिक समय ईश्वर के चिन्तन तथा पूजापाठ में व्यतीत करना चाहिए। यदि आप अपना सम्पूर्ण जीवन ही उसी के भजन-पूजन में लगा सकें तो आपको इस भव-सागर से तैर कर पार लगने में कोई कठिनाई नहीं होगी। जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर अधिकार कर सकता है, जो व्यक्ति संसार की समस्त वस्तुओं से निर्लिप्त रहता है, जो व्यक्ति नित्यप्रति ईश्वर चिन्तन करता रहता है, उसी को अन्त में उस महिमामय दिव्य भगवान के दर्शन प्राप्त हो सकते हैं । अतः अपने जीवन को सफल बनाने के लिए ईश्वरोन्मुख होना आवश्यक है । आदि आदि
स्वामीजी की मधुर वाणी सुनकर बूढ़े तथा भक्त लोग अतीव प्रसन्न हुए कुछ युवकों में कानाफूसी होने लगी । अन्त में उनमें से एक नौजवान लड़के ने जोर से पुकार कर कहा - "स्वामीजी ! यदि संसार के सभी लोग अपना काम-धन्धा छोड़कर ईश्वर भजन में ही लगेंगे तो उन्हें बैठे-बैठे अपनी जगह पर क्या आपका वह भगवान खिला देगा ? और यदि सांसारिक वस्तुओं का उपभोग न ले तो क्या उसी ईश्वर के द्वारा निर्मित इन्द्रियों पर अन्याय नहीं होगा ? और अन्त में उसने बड़ी धृष्टता के साथ पूछा कि हे स्वामीजी ! उस महिमामय भगवान के दर्शन आपको भी कभी हुए हैं ?" उस नौजवान लड़के की धृष्टता देखकर स्वामीजी कुछ कहने ही जा रहे थे कि लोगों ने उस लड़के की बहुत मर्त्सना की और उसे दण्डों से दण्डित कर वहाँ से निकाल दिया। इसी भाग-दौड़ में सभा के रंग का बेरंग हुआ और लोग बिखर गये । स्वामीजी भी अत्यन्त दुःखी मन से अपनी कुटिया में लौटे।
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उपर्युक्त प्रसंग साधारण होते हुए भी गम्भीरता से सोचने पर अत्यन्त महत्वपूर्ण भी है । आज भी हमारे समाज में ऐसे कई व्यक्ति हैं कि जो उस नौजवान व्यक्ति की भाँति शंकालु हैं । शंकालु होना कोई बुरी चीज नहीं है । व्यक्ति शंकालु बनता है उसका प्रमुख कारण उसके मन की जिज्ञासा का असमाधान ही होता है। यदि उसका समाधान हो जायगा तो वह निश्चय ही निःशंक होगा। समय के साथ-साथ वातावरण तथा विचारों की दिशाओं में भी अन्तर होता जाता है। आज के इतिहास से ज्ञात होता है कि सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर आदि में भी ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्हें तथाकथित ईश्वरोपासक भक्तों तथा धर्म घुटियों के वचन और कर्म में सामंजस्य नहीं दिखायी देता था । फलस्वरूप वे उन धर्मों को चुनौती देते हुए दृष्टिगत होते हैं।
आज का युग विज्ञान का युग है। इस युग में रहने वाले बुद्धिजीवी लोग किसी भी बात पर तब तक विश्वास रखने के लिए तैयार नहीं होते जब तक वह बात उनकी बुद्धि अथवा मन की कसौटी पर खरी न उतर आवे ।
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