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प्रश्न छोटा हो या मोटा, सरल हो या कठिन, इस लोक सम्बन्धी हो या परलोक सम्बन्धी, वर्तमान कालीन हो या भूत-भविष्यकाल से सम्बन्धित दूसरे से सम्बन्धित हो या स्वयं से सम्बन्धित एक-एक के सम्बन्ध में भगवान् के श्रीमुख से समाधान प्राप्त करने में ही गौतम आनन्द का अनुभव करते थे।
वस्तुतः इन प्रश्नों के पीछे एक रहस्य भी छिपा हुआ है। ज्ञानी गौतम को प्रश्न करने या समाधान प्राप्त करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं थी। वे तो प्रश्न इसलिये करते थे कि इस प्रकार की जिज्ञासाएँ अनेकों मानस में होती हैं किन्तु प्रत्येक श्रोता प्रश्न पूछ भी नहीं पाता या प्रश्न करने का उसमें सामर्थ्य नहीं होता । इसीलिए गौतम अपने माध्यम से श्रोतागणों के मन स्थित शंकाओं का समाधान करने के लिए ही प्रश्नोत्तरों की परिपाटी चलाते थे, ऐसी मेरी मान्यता है।
विद्यमान आगमों में चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि की रचना तो गौतम के प्रश्नों पर ही आधारित है। विशालकाय पंचम अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति (प्रसिद्ध नाम भगवती सूत्र ) जिसमें ३६००० प्रश्न संकलित हैं उनमें से कुछ प्रश्नों को छोड़कर शेष सारे प्रश्न गौतम कृत ही हैं।
गौतम के प्रश्न, चर्चा एवं संवादों का विवरण इतना विस्तृत है कि उसका वर्गीकरण करना भी सरल नहीं है। भगवती, औपपातिक, विपाक, राज- प्रश्नीय, प्रज्ञापना आदि में विविध विषयक इतने प्रश्न हैं कि इनके वर्गीकरण के साथ विस्तृत सूची बनाई जाय तो कई भागों में कई शोध-प्रबन्ध तैयार हो सकते है ।
सामान्यतया गौतम-कृत प्रश्नों को चार विभागों में बांट सकते हैं:१. अध्यात्म, २. कर्मफल, ३. लोक और ४. स्फुट । प्रथम अध्यात्म-विभाग में इन प्रश्नों को ले सकते हैं आत्मा, स्थिति, शाश्वत अशाश्वत, जीव, कर्म, कषाय, लेश्या, ज्ञान, ज्ञानफल, संसार, मोक्ष, सिद्ध आदि। इनमें केशी श्रमण और उदकपेढ़ा के संवाद भी सम्मिलित कर सकते हैं।
दूसरे विभाग में किसी को सुखी, किसी को दुःखी, किसी को समृद्धि-सम्पन्न और किसी निपट निर्धन को देखकर उसके शुभाशुभ कर्मों को जानकारी आदि ग्रहण कर सकते हैं।
तीसरे विभाग में लोकस्थिति, परमाणु, देव, नारक, षट्काय जीव, अजीव, भाषा, शरीर आदि और सौरमण्डल के गति विषयक आदि ले सकते हैं।
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चौथे विभाग में स्फुट प्रश्नों का समावेश कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर सामान्य से दो प्रश्नोत्तर प्रस्तुत हैं भगवन्! क्या लाघव, अल्प इच्छा, अमूर्च्छा, अनासक्ति और अप्रतिबद्धता, ये श्रमण-निर्गन्थों के लिये प्रशस्त हैं ?
प्रश्न
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विद्वत खण्ड ११८
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उत्तर- हाँ, गौतम! लाघव यावत् अप्रतिबद्धता श्रमण निर्गन्धों के लिये प्रशस्त / श्रेयस्कर है।
प्रश्न क्या कांक्षा प्रदोष क्षीण होने पर श्रमण- निर्गन्ध अन्तकर अथवा चरम शरीरी होता है? अथवा पूर्वावस्था में अधिक मोहग्रस्त होकर विहरण करे और फिर संवृत्त होकर मृत्यु प्राप्त करे तो तत्पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, बावत् सब दुःखों का अन्त करता है? उत्तर- गौतम! कांक्षा-प्रदोष नष्ट हो जाने पर श्रमण-निर्मन्थ यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। (भगवती सूत्र ९ शतक, ९ उद्देशक, सूत्र - १७, १९)
आगमों में गौतम से सम्बन्धित अंश
आगम-साहित्य में गणधर गौतम से सम्बन्धित प्रसंग भी बहुलता से प्राप्त होते हैं, उनमें से कतिपय संस्मरणीय प्रसंग यहां प्रस्तुत हैं ।
आनन्द श्रावक :
प्रभु महावीर के तीर्थ के गणाधिपति एवं सहस्वाधिक शिष्यों के गुरू होते हुए भी गणधर गौतम गोचरी / भिक्षा के लिये स्वयं जाते थे। एक समय का प्रसंग है :
प्रभु वाणिज्य ग्राम पधारे। तीसरे प्रहर में भगवान् की आज्ञा लेकर गौतम भिक्षा के लिये निकले और गवेषणा करते हुए गाथापति आनन्द श्रावक के घर पहुँचे । आनन्द श्रावक भगवान् महावीर का प्रथम श्रावक था। उपासक के बारह व्रतों का पालन करते हुए ग्यारह प्रतिमाएँ भी वहन की थीं। जीवन के अन्तिम समय में उसने आजीवन अनशन ग्रहण कर रखा था। उस स्थिति में गौतम उनसे मिलने गए। आनन्द ने श्रद्धा-भक्ति पूर्वक नमन किया और पूछा प्रभो क्या गृहवास में ! रहते हुए गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है ? गौतम - हो सकता है।
आनन्द – भगवन्! मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है। मैं पूर्व, पश्चिम, दक्षिण दिशाओं में पांच सौ पांच सौ योजन तक लवण समुद्र का क्षेत्र, उत्तर में हिमवान पर्वत, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प और अधो दिशा में प्रथम नरक भूमि तक का क्षेत्र देखता हूँ।
गौतम - गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, किन्तु इतना विशाल नहीं । तुम्हारा कथन भ्रान्तियुक्त एवं असत्य है। अतः असत्भाषण प्रवृत्ति की आलोचना / प्रायश्चित्त करो।
आनन्द-भगवन्! क्या सत्य कथन करने पर प्रायश्चित्त ग्रहण करना पड़ता है ?
गौतम नहीं।
आनन्द - तो, भगवन ! सत्य भाषण पर आलोचना का निर्देश करने वाले आप ही प्रायश्चित करें।
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शिक्षा एक यशस्वी दशक
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