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ये इन्द्र के समान ज्ञानादि ऐश्वर्य से सम्पन्न हैं । गौतम तो इनका गोत्र है। किन्तु, जैन समाज की आबाल वृद्ध जनता सहस्राब्दियों से इन्हें गौतम स्वामी के नाम से ही जानती पहचानती / पुकारती आई है। जीवन-चरित्र
गौतमस्वामी का व्यक्तित्व और कृतित्व अनुपमेय है। सर्वांग रूप से इनका जीवन चरित्र प्राप्त नहीं है, किन्तु इनके जीवन की छुट- पुछ घटनाओं के उल्लेख आगम, नियुक्ति, भाष्य, टीकाओं में बहुलता से प्राप्त होते हैं यत्र-तत्र प्राप्त उल्लेखों / बिखरी हुई कड़ियों के आधार पर इनका जो जीवन-चरित्र बनता है, वह इस प्रकार है।
जन्म : मगध देश के अन्तर्गत नालन्दा के अनति दूर "गुव्वर" नाम का ग्राम था, जो समृद्धि से पूर्ण था। वहाँ विप्रवंशीय गौतम गोत्रीय वसुभूति नामक श्रेष्ठ विद्वान् निवास करते थे। उनकी अर्धांगिनी का नाम पृथ्वी था । पृथ्वी माता की रत्नकुक्षि से ही ईस्वी पूर्व ६०७ में ज्येष्ठा नक्षत्र में इनका जन्म हुआ था। इनका जन्म नाम इन्द्रभूति रखा गया था। इनके अनन्तर चार-चार वर्ष के अन्तराल में विप्र वसुभूति के दो पुत्र और हुए; जिनके नाम क्रमशः अग्निभूति और वायुभूति रखे गये थे।
अध्ययन: यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात् इन्द्रभूति ने उद्भट शिक्षा - गुरु के सान्निध्य में रहकर ऋक्, यजु, साम एवं अथर्व-इन चारों वेदों; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द एवं ज्योतिष इन छहों वेदांगों तथा मीमांसा, न्याय, धर्म शास्त्र एवं पुराण इन चार उपांगों का अर्थात् चतुर्दश विद्याओं का सम्यक् प्रकार से तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था ।
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आचार्य चौदह विद्याओं के पारंगत विद्वान् होने के पश्चात् इन्द्रभूति के तीन कार्य-क्षेत्र दृष्टि पथ में आते हैं
१. अध्यापन - इन्होंने ५०० छात्रों / बटुकों को समग्र विद्याओं का अध्ययन कराते हुए सुयोग्यतम वेदवित्, कर्मकाण्डी और वादी बनाये। ये ५०० छात्र शरीर- छाया के समान सर्वदा इनके साथ ही रहते थे।
२. शास्त्रार्थ- दुर्धर्ष विद्वान् होने के कारण इन्द्रभूति ने छात्रसमुदाय के साथ उत्तरी भारत में घूम-घूम कर, स्थान-स्थान पर तत्कालीन विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किये और उन्हें पराजित कर अपनी दिग्विजय पताका फहराते रहे। किन-किन के साथ और किस-किस विषय पर शास्वार्थ किये? उल्लेख प्राप्त नहीं हैं।
३. यज्ञाचार्य इन्द्रभूति प्रमुखतः मीमांसक होने के कारण कर्मकाण्डी थे। स्वयं प्रतिदिन यज्ञ करते और विशालतम यागयज्ञादि क्रियाओं के अनुष्ठान करवाते थे । यज्ञाचार्य के रूप में दसों दिशाओं में इनकी प्रसिद्धि थी। फलतः अनेक वैभवशाली गृहस्थ बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान कराने के लिए इन्हें अपने यहाँ आमन्त्रित
विद्वत खण्ड / ११२
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कर स्वयं को भाग्यशाली समझते थे इन्द्रभूति की कीर्ति से आकृष्ट होकर अपार जन-समूह दूरस्थ प्रदेशों से इनकी यज्ञ - आहुति में पहुँच कर अपने को धन्य समझता था ।
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स्पष्ट है कि इनका विशाल शिष्य समुदाय था। इनके अप्रतिम वैदुष्य के समक्ष बड़े-बड़े पण्डित व शास्त्र-धुरन्धर नतमस्तक हो जाते थे। अतिनिष्णात वेद-विद्या और उच्च यज्ञाचार्य के समकक्ष उस समय इन्द्रभूति की कोटि का कोई दूसरा विद्वान् मगध देश में नहीं था। छात्र संख्या विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार गौतम ५०० शिष्यों के साथ महावीर के शिष्य बने थे निर्विवाद है किन्तु अपने अध्यापन काल में तो उन्होंने सहस्रों छात्रों को शिक्षित कर विशिष्ट विद्वान् अवश्य बनाये होंगे? इस सम्बन्ध में आचार्य श्री हस्तिमलजी ने "इन्द्रभूति गौतम लेख में जो विचार व्यक्त किये हैं, वे उपयुक्त प्रतीत होते हैं
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" सम्भवत: इस प्रकार ख्याति प्राप्त कर लेने के पश्चात् वे वेद-वेदांग के आचार्य बने हों। उनकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल जाने के कारण यह सहज ही विश्वास किया जा सकता है कि सैकड़ों की संख्या में शिक्षार्थी उनके पास अध्ययनार्थ आये हों और यह संख्या उत्तरोत्तर बढ़ते-बढ़ते ५०० ही नहीं अपितु इससे कहीं अधिक बढ़ गई हो। इन्द्रभूति के अध्यापन काल का प्रारम्भ उनकी ३० वर्ष की वय से भी माना जाय तो २० वर्ष के अध्यापन काल की सुदीर्घ अवधि में अध्येता बहुत बड़ी संख्या में स्नातक बनकर निकल चुके होंगे और उनकी जगह नवीन छात्रों का प्रवेश भी अवश्यम्भावी रहा होगा। ऐसी स्थिति में अध्येताओं की पूर्ण संख्या ५०० से अधिक होनी चाहिए। ५०० की संख्या केवल नियमित रूप से अध्ययन करने वाले छात्रों की दृष्टि से ही अधिक संगत प्रतीत होती है।"
विवाह अध्ययनोपरान्त इन्द्रभूति का विवाह हुआ या नहीं ? कहाँ हुआ ? किसके साथ हुआ ? इनकी वंश-परम्परा चली या नहीं ? इस प्रसंग में दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के समस्त शास्त्रकार मौन हैं। इन्द्रभूति ५० वर्ष की अवस्था तक गृहवास में रहे, यह सभी को मान्य है, परन्तु उस अवस्था तक वे बाल ब्रह्मचारी ही रहे या गार्हस्थ्य जीवन में रहे? कोई स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता। अतः यह मान सकते हैं कि इन्द्रभूति ने अपना ५० वर्ष का जीवन अध्ययन, अध्यापन, वाद-विवाद और कर्मकाण्ड में रहते हुए बाल- ब्रह्मचारी के रूप में ही व्यतीत किया था।
शरीर सौष्ठव भगवती सूत्र में इन्द्रभूति की शारीरिक रचना के प्रसंग में कहा गया है-इन्द्रभूति का देहमान ७ हाथ का था,, अर्थात् शरीर की ऊँचाई सात हाथ की थी आकार समचतुरस्र संस्थान / लक्षण (सम चौरस शरीराकृति) युक्त था ।
शिक्षा - एक यशस्वी दशक
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