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आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र एक चिन्तन / १०३
गाथा ४१ - 'नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा' - जैसे पक्षिणी पिंजरे में सुख नहीं मानती है वैसे ही मैं भी राज्यवैभव में सुख नहीं मानती हूँ । उदाहरण तथा उपमा ।
गाथा ४२-४३ - दवग्गिणा जहा रण्णे, उज्झमाणेसु जंतुसु । जैसे वन में लगे दावानल में जन्तुओं को जलते देख अन्य प्राणी प्रभावित होते हैं वैसे ही हम भी राग-द्वेष की अग्नि में जलते हुए जगत् को समझ नहीं पाये हैं । गाथा ४६ - 'जिस गीध पक्षी के पास मांस होता है उसी पर दूसरे मांसभक्षी झपटते हैं । जिसके पास नहीं होता है उस पर नहीं । अतः मैं भी मांसोयमा वाले कामभोगों को छोड़कर निरामिष भाव से विचरण करूगी! इसमें उदाहरण दिया गया है अतः उदाहरण अलंकार ।
गाथा ४७ – 'उरगो सुवण्णपासे व शंकित होकर चलता है वैसे ही कामभोगों से हैं।' इसमें उदाहरण तथा 'गिद्वोयमे' में उपमालंकार है।
गाथा ४८--' नागो व्व बंधण' छित्ता' - बंधन तोड़कर हाथी अपने निवासस्थान - जंगल में चला जाता है वैसे ही हमें भी मोक्ष के पथ में चलना चाहिए ! उदाहरण अलंकार है ! अध्ययन १६ - गाथा १५ - 'धम्मसारही 'धर्मरुपी रथ का चालक / सारथी। इसमें रूपक | 'धम्म' शब्द की पुनरावृत्ति श्रतः यमक ।
अध्ययन १८ - गाथा ४७ – 'नरिदवसभा' राजाओं में वृषभ के समान । उपमा
लंकार !
संकमाणो तणु चरे,—जैसे गरुड़ के समीप सांप शंकित होकर चले । कामभोग गीध के समान
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गाथा ४९ - 'कम्ममहावणं' कर्मरूपी महावन । रूपक ।
गाथा ५१ - ' अदाय सिरसा सिरं - सिर देकर (अहं) सिर (मोक्ष) प्राप्त किया । तुल्ययोगिता तथा यमक अलंकार तथा 'सिर' शब्द में श्लेष मस्तिष्क और मोक्ष
गाथा ५४ -- 'नीरए -- रज रहित; कर्मरूपी रज रहित । श्लेष अलंकार ।
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अध्ययन १६ --गाथा ११ - ' महण्णवाओ' संसार रूप महासागर । रूपक । गाथा १२ - 'विसफलोवमा' - भोग विषफल के समान । उपमा ।
गाथा १४ - ' फेणबुब्बुय -- शरीर पानी के बुलबुले के समान है । उपमा । गाथा १८ --- 'जहा किंपागफलाणं, परिणामो न सुंदरी ।
एवं भुत्ताण भोगाण परिणामो न सुंदरो ॥'
जैसे विष रूप किम्पाक फल का परिणाम सुंदर नहीं आता है, वैसे ही भोगे गये कामभोगों का परिणाम भी सुंदर नहीं होता ! ---उदाहरण तथा यमक ।
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गाथा १९ २० २१-२२-जैसे पाथेय सहित पथिक सुखी होता है और पाधेय रहित दुःखी, वैसे ही धर्मरूपी पाथेय वाला जीव सुखी अन्यथा दुःखी होता है, इन गाथाओं में दृष्टांत तथा यमक अलंकार है ।
गाथा ३६-'.
.. गुणाणं तु महामरो । गुरुओ लोहमारो स्व............॥'
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धम्मो दीव संसार समुद्र मे धर्म ही दीप
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