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चतुर्थ खण्ड / ९८
THURSHIROMAN
Ramnyar
अर्चनार्चन
मुनि शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होता है।' इसमें पुरुषावृत्ति अनुप्रास, यमक (उवेह शब्द दो बार) एवं 'छंदं' शब्द से श्लेष अलंकार प्रकट होता है ।
अध्ययन ५-गाथा १-'एगे' शब्द दो बार अत: यमक और 'अण्णवंसी-महोहंसी' संसार रूपी महाप्रवाहवाला समुद्र ! इसमें रूपक अलंकार तथा गाथा में अनुप्रास तथा अर्थान्तर- . न्यासालंकार भी है ।
गाथा १०-'सिसुणागु व मट्टियं'– केंचुए की तरह दोनों ओर से 'दुहआं मलं जंचिणई राग-द्वेष के द्वारा जीव कर्ममल को इकट्ठा करता है । इसमें उदाहरण तथा अनुप्रास है। गाथा १४-१५-१६-'जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महापहं ।'
विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गंमि सोयई ॥ जैसे गाड़ीवान समतल महान् मार्ग को जानकर भी छोड़कर विषम मार्ग में चल पड़ता है और गाड़ी की धुरा टूट जाने पर शोक करता है, वैसे ही (गाथा १५ में) 'एवं धम्म विउम्कम्म' धर्म का उल्लंघन करने वाले की स्थिति बनती है।-उदाहरण तथा 'मच्चु मुहं' मृत्यु के मुख में-इसमें मानवीय अलंकार है। तथा (गाथा १६ में) 'धुत्त व कलिणा जिए' जूमारी की तरह एक दाब में सब जीते दावों को हारने वाले की तरह शोक करता है। उपमा तथा अनुप्रास है गाथा में। गाथा २०- 'सन्ति एगेहि भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा ।
गारत्थेहि य सव्येहि साहवो संजमुत्तरा ॥ कुछ भिक्षुषों की अपेक्षा गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं किन्तु शुद्धाचारी साधु गृहस्थों से संयम में श्रेष्ठ है-विरोधाभास, यमक तथा अनुप्रासालंकार है।
अध्ययन ६-गाथा ४-इसमें सम तथा अनुप्रास है । गाथा ११-इसमें सम अलंकार है।
गाथा १६–'पक्खीपत्त समादाय'-पक्षी के पंखों की तरह पात्र ग्रहण करे। उपमालंकार।
अध्ययन ७-गाथा ९–'अय व्व आगयाएसे, मरणंतमि सोयई'--मेहमान के प्राने पर (मृत्यु के आने पर) बकरा शोक करता है वैसे ही कर्म से भारी जीव मृत्यु के आने पर शोक करता है। उदाहरण तथा अनुप्रास ।
गाथा ११ से १३-'जहा कागिणिए हेळं, सहस्सं हारए नरो'-काकिणी के लिए हजार कार्षापण हारने वाले की तरह तथा 'अपत्थं अम्बगं भोच्चा, राया रज्जं तु हारए' एक अपथ्य पाम्रफल खाकर जीवन तथा राज्य हारने वाले की तरह भोगासक्त जीव जीवन तथा नर-पायु हार जाता है। उदाहरण तथा गाथा १२ में 'कामा' शब्द दो बार पाने से प्रतः यमक और अनुप्रास है।
गाथा १४–'एगो' शब्द दो बार अतः यमक । गाथा १५ - ववहारे उवमा एसा'--'एवं धम्मे वियाणह' इसमें उपमालंकार।
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