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आईत्-धर्म एवं श्रमण-संस्कृति
णमो उवज्झायाणं
णमो लोए सव्व साहूणं
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= उपाध्यायों को नमस्कार हो
लोक में सर्व साधुओं [ श्रमण मुनियों ] को नमस्कार हो ।
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प्रकारान्तर से यदि विशेष विवेचन किया जाय तो जैसे यह मूल मंत्र नमस्कारात्मक है वैसे ही आत धर्म का प्रतिपादक भी है। उक्त पांचों परमेष्ठी का स्वरूप समझना, आर्हत धर्म के सिद्धान्तों को समझना है । और इसीलिये हम कह सकते हैं उक्त मूल मंत्र ' श्रमण संस्कृति' का आधार और 'श्रमण संस्कृति' मूल मंत्र का आधार है। चूँकि एक अनादि सिद्ध है, प्राचीन सिद्ध है तो दूसरा भी अनादि और प्राचीन सिद्ध है । अब हम उक्त अनादि मंत्र का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराकर श्रमण-संस्कृति पर प्रकाश डालेंगे | श्रमण संस्कृति के भी उल्लेख अन्य ग्रन्थों में वैसे ही मिलते हैं जैसे कि ' अरहंत' पद के
मिलते हैं ।
णमोकार मंत्र का वास्तविक स्वरूप
पर,
जबतक अशुद्ध परिणमन रहता
आर्हत दर्शन में छह द्रव्य माने गये हैं—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । स्थूल रीति से इन्हें जीव और अजीव इन दो भेदों में भी गर्भित कर सकते हैं । प्रत्येक द्रव्य स्वभावतः शुद्ध है 1 जीव और पुद्गल वैभाविक परिणति से अशुद्ध परिणमन भी कर रहे हैं। है जीव द्रव्य भी संसारी नाम पाता है उसकी पूज्यता नहीं होती । शुद्धता प्राप्त करने के लिये जीव को कर्मों से पृथक होना पड़ता है । जब यह जीव कर्मों से पृथक् होने का उपक्रम करके ज्ञानावरणी, दर्शना - वरणी, मोहनीय और अंतराय कर्मों से अपने को पृथक् कर लेता है तब ये केवलज्ञानी और पूज्य हो जाता है और इसे अरहंत संज्ञा की प्राप्ति हो जाती है । अरहंत की निष्पत्ति ' अर्ह ' धातु से होती है जिसका भाव पूजावाचक अर्थात् पूज्य होने से है ।
णमो अरहन्ताणं - लोक में अरहन्त के प्रचलित तीन रूप मिलते हैं यथा - णमो अरहंताणं, णमो अरिहंताण और णमो अरुहंताणं । अनेक विद्वानों ने इन पर विचार किया है और भिन्न भिन्न विचार भी प्रकट किये हैं-अरहंताणं पद ' अहः प्रशंसायां ' सूत्र से शतृ प्रत्यय होने पर अर्हत बना । और 'उगिदचां नुम् सर्व स्थाने धातो: ' से नुम् होने पर अर्हन्त् बना । ' स्वररहितं व्यंजनं नास्ति ' नियम के अनुसार अरहंत वना । और पूज्य अर्थ में यही पद शुद्ध है । अन्य पदों का व्यवहार कालान्तर में शब्दशास्त्र पर ऊहापोह होने के पश्चात् विभिन्न अर्थों के सन्निवेश में होने लगा । वास्तव में धातु के मूल अर्थ ' पूज्यता' की दृष्टि से णमो अरहंताणं ही ठीक है और ऐसा ही बोलना चाहिये । यद्यपि लोक में इस पद को अरिहंत रूप में उच्चारण करने की प्रथा [ अरि- कर्मशत्रु को ' हन्त ' - नाशकर्ता के भाव में ] पड़ चली है और शब्दार्थ विचारने पर उचित सी आभासित होती है । पर जहां तक मूल और मंत्र की अनादि परम्परा की बात है -- ऐसा अर्थ किन्ही प्राचीन ग्रन्थों में देखने में नहीं आता। सभी स्थानों पर ' अर्ह '
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