________________
साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
(क) सविपाक निर्जरा - अपने समय पर स्वयं कर्मों का उदय में आकर झड़ते रहना । (ख) अविपाक निर्जरा - तप द्वारा समय से पहले कर्मों का झड़ना ।
शुभ भावों से पाप की निर्जरा होती है और पुण्य का बन्ध होता है किन्तु शुद्ध भावों से दोनों की निर्जरा होती है ।
लिश्यते इति लेश्याः । कषायां प्रकृतिरेदं लेश्या । लेश्या का अर्थ लेप है 38 - यथा
लिम्पतीति लेश्या
जो जिसे वह लेश्या है । कषायों से लिप्त मन-वचन-काय की प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि शुभ-अशुभ भाव रूप लेप के द्वारा आत्मा के परिणाम लिप्त करने वाली प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है 39 - यथा
लिप्पह अप्पी कोरइ एयाह नियय पुष्ण पावं च । जीवोति होइ लेसा लेसागुण जाणयक्खाया. ॥
अर्थात् जिसके द्वारा जीव पुण्य-पाप से अपने को लिप्त करता है, उसको लेश्या कहते हैं । लेश्या दो प्रकार से कही गई है 10 यथा
गया है 42 -
(क) भावलेश्या - जीव के परिणाम स्वरूप भावलेश्या होती है ।
(ख) द्रव्य लेश्या - शरीरनामकर्मोदय से उत्पन्न द्रव्यलेश्या है ।
द्रव्यलेश्या छह प्रकार से वर्णित है जिन्हें दो मुख्य भागों में निम्न प्रकार से विभाजित किया
(क) शुभलेश्या -
श्या
(क) पीत लेश्या - सुवर्ण सदृश वर्ण (ख) पद्म लेश्या - पद्म समान वर्ण (ग) शुक्ल लेश्या - शंख के सदृश वर्ण
(ख) अशुभलेश्या -
(क) कृष्ण लेश्या - भ्रमर के सदृश काला वर्ण (ख) नील लेश्या - नीलमणि सदृश रंग (ग) कापोत लेश्या - कपोत सदृश वर्ण
संवर-सम पूर्वक 'वृ' धातु से अप प्रत्यय करने पर 'संवर' शब्द निष्पन्न हुआ है । जैनदर्शन में सप्त तत्त्वों - जीव, अजीव, बंध, आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष- में से पांचवां तत्त्व संवर है । जीव के रागादिक अशुभ परिणामों के अभाव से कर्म वर्गणाओं के आस्रव का रुकना संवर कहलाता है 142 आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं - यथा—
आस्रव निरोधः संवरः ।
गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र्य ये सभी संवर के कारण हैं ।" संवर दो प्रकार से कहे गए हैं 45 - यथा
आर्ष ग्रन्थों में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि और उसका अर्थ अभिप्राय : डॉ० आदित्य प्रचंडिया | १६७
www.ja