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आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग उपासना / ६९
करना आवश्यक है । उपासना से मन जितने समय तक इष्टाकार रहेगा उतने ही काल तक वह दोषों से, कषायों से या विकारों से परे रहेगा और धीरे-धीरे अभ्यास के द्वारा जब वह निरन्तर इष्टमय बना रहेगा तो अपने वास्तविक रूप सच्चिदानन्द की प्राप्ति कर लेगा और परमशांति तथा तुष्टता का अनुभव करता हुआ समस्त शंकानों और संदेहों से रिक्त हो जाएगा । उस समय प्राध्यात्मिक प्रकाश की अनिर्वचनीय प्राप्ति हो सकेगी तथा हृदय की सम्पूर्ण ग्रन्थियाँ खुल जाएँगी । कहा भी है:
भिद्यते हृदयप्रन्थिरियन्ते सर्वसंशयाः ।
इस स्थिति में पहुँचने पर आत्मा को अनिवर्चनीय प्रकाश का अनुभव होता है, और परमानन्द की प्राप्ति होती है।
उपासना किसकी ?
साधारणतया प्रत्येक व्यक्ति समय-समय पर किन्हीं वस्तुओंों की अथवा व्यक्तियों की उपासना करता है। यथा बुभुक्षु और तृषा-पीडित प्रतिपल खाद्यान्त मौर जल प्राप्ति के चिन्तन में व्याकुल रहता है, चोर स्वयं को हीन समझता हुआ डाकू की सराहना करते हुए उसके समान बनने की कामना में डूबा मनन, उपासना की तुला पर निकृष्ट और सारहीन साबित उनसे कोई लाभ नहीं होता और न ही वे श्रात्मोन्नति में सहायक बनते हैं ।
रहता है होते हैं,
शक्ति और साहस की । किन्तु ऐसे चिन्तनप्राध्यात्मिक जगत् में
उपासना का अर्थ ही 'उप + आसना' यानी समीप बैठना है। इसलिये उपासना
अतः वह ज्ञानी संसर्ग में आकर
के इच्छुक को प्रारम्भ में ही योग्य के समीप बैठकर यानी रहकर उसके गुणों को ग्रहण करना चाहिये । उपासना करने वाला उपास्य के गुण अपने में धारण करता है, गुरु के पास रहकर अथवा जिसके पास विशिष्ट प्रात्म-शक्ति हो उसके उसकी उपासना करे ऐसा करने पर उसे ज्ञान की प्राप्ति होगी तथा उसकी प्रात्मिक शक्ति बढ़ेगी । उसका अपने उपास्य जैसा बनने का प्रयत्न करना ही उपासना है । स्पष्ट है कि उपासना योग्य की नहीं, श्रपितु योग्य की करनी चाहिये, वही लाभकारी होती है तथा सही अर्थ में उपासना कहलाती है। दूसरे शब्दों में जिस उपासना से ज्ञान की वृद्धि हो तथा आत्म-शक्ति में विशिष्टता आए वही सच्ची उपासना होती है ।
उन्नति शनैः-शनै होती है और तभी होती है, जब मानव अपना संबंध प्रतियोग्य एवं विशेष सिद्धि प्राप्त व्यक्तियों से रखे । उन्नति का अकाट्य नियम ही यह है कि साधक अपना संबंध अपने से उच्च कोटि के साधक के साथ जोड़े ।
अन्ततः परमात्मा से लो लगाने पर ही मनुष्य अपनी ग्रात्मा को उन्नति के शिखर पर लाता हुआ परमात्मा बन सकता है । सारांश यही है कि लौकिक कल्याणार्थ शक्ति-सम्पन्न व्यक्तियों की उपासना भी लघु पैमाने पर सर्वत्र व्यवहृत है किन्तु वह निम्न कोटि की तथा धर्म - विगर्हित है | वास्तविक उपासना पारलौकिक कल्याण के हेतु संसार-मुक्त, शाश्वत सुख के अधिकारी तथा वीतराग प्रभु की की जाती है और वही श्रेयस्कर है।
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धम्मो दीयो संसार समुद्र मैं धर्म ही दीप है
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