________________ प्राप्त कर लेता है। सामायिक का साधक द्रव्य, काल, क्षेत्र, भाव की मद, लोभ, दम्भ आदि के आवरण हट जाते हैं। इसी मैल को अलग विशुद्धि के साथ मन-वचन-काया की शुद्धि से सामायिक ग्रहण करने के लिए शरीर रूपी बर्तन को तप की आँच से तपाया जाता करता है। “परद्रव्यों से निवृत्त होकर साधक की ज्ञान चेतना जब है। यह आँच तेज न हो तो आत्मबलरूपी घृत नहीं निकल सकता। आत्मस्वरूप में लीन होती है तभी सामायिक होती है।" तीर्थंकर तप द्वारा धारणाशक्ति और संकल्पशक्ति बढ़ती है। मनुष्य बड़े-बड़े भगवान भी जब साधना मार्ग में प्रवेश करते हैं तो सर्वप्रथम संकल्पों को पूर्ण कर सकता है। सामायिक चारित्र स्वीकार करते हैं। बिना समत्व के संयम या तप तत्वार्थ सूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र के गुण टिक नहीं सकते। हिंसा आदि दोष सामायिक में सहज ही को साधक के लिये अनिवार्य बताया गया है। इसके पीछे गहरी छोड़ दिये जाते हैं। अत: आत्मस्वरूप को पाने की यह मुख्य सीढ़ी मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। मानवीय चेतना के तीन पहलू माने गये हैं- ज्ञान, कह सकते है। भगवती सूत्र में स्पष्ट कहा है भाव और संकल्प। चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में __ आया खलु सामाइये, - नियोजित करने के लिये सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष को सही दिशा आया सामाइयस्स अट्ठे / में नियोजित करने के लिये ज्ञान और संकल्पात्मक पक्ष को सही दिशा अर्थात् आत्मा ही सामायिक ही और आत्मस्वरूप की प्राप्ति ही में नियोजित करने के लिए सम्यक् चारित्र का प्रावधान किया गया है। सामायिक का प्रयोजन है। व्यवहार में जब तक, स्वाध्याय एवं ध्यान भगवान महावीर ने कहा हैऔर सादे वेश-भूषा में शांत बैठकर साधना करना सामायिक है। हयं नाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया / राग-द्वेष को हटाना या अधिकारों को जीत लेना सामायिक का निश्चय पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ / / (समणसुत्तं 212) पक्ष है। अर्थात् क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की क्रिया व्यर्थ 24 जिनेश्वरों की स्तुति हमारे मन को निर्मलता से संस्कारित है। यह उसी तरह है जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी हुई आग को देख तो करती है। जिनेश्वर भगवान के गुणों की स्मृति में मन पावन हो जाता सकता है पर दौड़ नहीं सकता तथा अंधा व्यक्ति दौड़ तो सकता है पर देख है और चेतना में उदात्तोन्मुखता का बीजारोपण होता है। नहीं सकता। वन्दना के द्वारा अहम् का विगलन होता है। विनम्रता आन्तरिक साधना पर बल देते हुए भगवान महावीर ने कहा आत्मशक्ति को प्रस्फुटित करती है। थाप्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान के पीछे बड़ी मनोवैज्ञानिक दृष्टि न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो / है। प्रतिक्रमण के द्वारा साधक अपनी दैनन्दिनचर्या का अवलोकन न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो / / करता है, कृत त्रुटियों के प्रति सजग होकर प्रायश्चित करता है और समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो / भविष्य में ऐसी त्रुटियाँ न हों इसके लिए प्रत्याख्यान करता है अर्थात् नाणेण य मुणी होई, तवेण होइ तावसो / / (समणसुत्तं 340,341) संकल्पबद्ध होता है। इस प्रकार धीरे-धीरे वह अपना अन्तर निरीक्षण- अर्थात् केवल सिर मुड़ाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का परीक्षण करता हुआ धर्म को जीवन व्यवहार में उतारता चलता है। जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं कायोत्सर्ग तो ध्यान की वह उच्चतम स्थिति है जहाँ मनुष्य होता, कुश-चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता। व्यक्ति समाधि में स्थित हो जाता है। साधक स्थूल शरीर, पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता कर्मेन्द्रियों एवं अन्त:करण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) से परे होकर है और तप से तपस्वी होता है। आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है। कायोत्सर्ग की प्रक्रिया में शरीर उक्त विविध साधना प्रणालियों के विवेचन का उद्देश्य यही है शिथिल, वाणी मौन, श्वास मन्द और मन निर्विचार हो जाता है। साधक कि आत्मप्रवंचना न करने वाले तथा स्वयं को धोखा न देने वाले उस अन्तर्जगत में पहुँच जाता है जहाँ ईर्ष्या, विषाद्, शोक, भय आदि व्यक्ति को असंदिग्ध होकर यह समझ लेना चाहिये कि जिस भौतिक मानसिक दु:खों की बाधा तथा सर्दी-गर्मी आदि शारीरिक दु:खों का सुख के लिए आज का मनुष्य समाज प्रयत्नशील है, वह सुख मिथ्या संवेदन नहीं रहता। कायोत्सर्ग की यही स्थिति थी जिसमें विषधर सर्प है, मानवीय गरिमा के योग्य नहीं है। धन जीवन का साधन था पर चण्डकौशिक परास्त हो गया। यह कायोत्सर्ग ही सत्याग्रह को उसे सिद्धि मान लिया गया और इसी भ्रम से पूरा मनुष्य समाज ग्रसित प्रतिफलित करता है। हो गया है। हमने भौतिक उपलब्धियाँ की, सुख-साधनों का विस्तार जैन धर्म की साधना प्रणाली में तप का महत्वपूर्ण स्थान है। किया, वैज्ञानिक सुविधाओं से स्थान की दूरियाँ कम की, दुनिया में तपस्या द्वारा साधक मन और इन्द्रियों को साधता है। तपस्या साधक हम एक दूसरे के निकट आये, अयोनिज सृजन क्लोन का आविष्कार में तितीक्षा भाव जगाती है, आवेगों पर विजय प्राप्त करने हेतु किया, लेकिन हम एक बार अपने भीतर झाँके कि क्या हमें शान्ति नियंत्रण शक्ति देती है। चैतन्यगुण सम्पन्न आत्मा से द्वेष, क्रोध, मान, है? क्या हम क्लेष रहित हैं? क्या हम निर्भय हैं? उत्तर अधिक 0 अष्टदशी/ 2440 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org