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श्री श्रात्मारामजी तथा ईसाई मिशनरी
उपदेश ने उत्तर दिया, 'जब तुम मरोगे, तब तुम्हें दंड मिलेगा।' तब उस आदमी ने प्रत्युत्तर दिया, 'ऐसे ही जब तुम मरोगे तत्र तुम्हें भी मेरे देवता दंड देंगे " |
उपर्युक्त वर्णन उस पृष्ठ भूमि का है जिसे सन्मुख रखते हुए हमारे १६ वीं शताब्दी के सुधारकों को कार्य करना था। भारत का सौभाग्य है कि उसे ऐसे नररत्न प्राप्त हुए जिन्हों ने भारतीय धर्म, सभ्यता और संस्कृति की रक्षा कर हमारी राष्ट्रीय भावना को पुष्ट किया। श्री आत्माराम जी ईसाई मिशनरियों की युक्तियों, प्रचार के ढंगों और उनके उद्देश्यों से सुपरिचित थे । वे इस बात को अच्छी तरह समझ रहे थे कि " कितने ही ईसाई जन प्रमाण और युक्ति के ज्ञान के अभाव में और अपने पंथ के चलाने वाले ईसा मसीह के अनुराग से अपने ही स्वीकृत धर्म को सत्य मानते हैं और कितने ही आर्यावर्त के रहने वालों Ant जिनकी बुद्धि सत्य धर्म में पूरी निपुण नहीं है, अपने मत का उपदेश करते हैं । २ " श्री श्रात्माराम जी ने उन कारणों का विश्लेषण किया था जिन के आधार पर भारतीय युवक धड़ाधड़ ईसाई बन रहे थे । उन्होंने लिखा है, “निर्धन धन के लोभ से, कंवारे व रंडे विवाद के लोभ से, कुछ खानपान संबंधी स्वतन्त्रता के लोभ से, कुछ हिन्दुत्रों के देवों व उन की मूर्तियों की अटपटी रीति भांति देखने से ईसाई होते जाते हैं । " " एक और स्थान पर वे इसी विषय की चर्चा करते हुए लिखते हैं, "युरोपियन लोकों ने हिन्दुस्थान में ईसाई मत का उपदेश करना शुरू किया हैं। उपदेश से, धन से, स्त्री देने से, लोगों को अपने मत में बेपटिज्म देके मिलाते है । "४.
भारतीय युवकों को ईसाई होने से बचाने के लिए हमारे तत्कालीन सुधारकों ने बड़े साहस व कौशल से काम किया। श्री श्रात्माराम जी भी स्वयं इस कार्यक्षेत्र में काम करते रहे। गुजराती भाषा में एक पादरी ने एक पुस्तक लिखी थी जिस के द्वारा जैन धर्म के विषय में भ्रातियां फैलाई गई थीं। आप ने उस के उत्तर में एक खोजपूर्ण पुस्तक लिखी जिस का नाम था 'ईसाई मत समीक्षा' । श्राप ने ब्रह्मसमाज और आर्य समाज द्वारा इस विषय में किए गए कार्य को भी स्वीकार किया आप ने लिखा है, "ईसा के मत में बहुत अंग्रेज़ी फारसी के पढने वाले लोक हैं। वे कदाग्रह से लोकों से मत की बाबत झगड़ते फिरते हैं । परन्तु ब्रह्मसमाजियों ने और दयानन्द जी ने कितनेक हिन्दुओं को ईसाई होने से रोका है " । "
श्री श्रात्माराम जी अंग्रेजी पढ़ेलिखे युवकों से प्रायः कहा करते थे, "होश में आओ। तुम कौन हो और किधर जा रहे हो ? तुम्हारे पूर्वजों का चरित्र तुम्हारे लिए प्रकाशमान दीपक के समान है। उन के महान कार्यों को पढ़ो। तब तुम्हें ज्ञात होगा कि पूर्व ने पश्चिम को अपने प्रकाश से किस प्रकार लाभ पहुंचाया है । तुम्हें पूर्व की ओर देखना चाहिए जहां से सूर्य देवता अपना प्रकाश डालता है, न कि पश्चिम की और जिधर वह अस्त होता है । ईसाई मिशनरियों की चिकनी चुपड़ी बातों में मत नो । वे तुम्हारे धर्म को अपमानित कर रहे हैं और तुम्हारी सभ्यता का परिहास कर रहे हैं। उन के मिथ्या प्रचार से बचने के लिए धर्म उपदेश सुनो और अपनी धार्मिक पुस्तकों को ध्यानपूर्वक पढ़ो।'
६"
१. The World's Parliament of Religions, vol. ii, p. 975.
२. ईसाई मत समीक्षा - पृ. २.
३. ईसाई मत समीक्षा - पृ. २-३.
४. अज्ञानतिमिर भास्कर — पृ. २६७.
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५. अज्ञानतिमिर भास्कर - पृ. २६८.
६. ला० बाबूराम : आत्मचरित्र (उर्दू) पृ. ११२.
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