________________
श्री आत्मारामजी तथा ईसाई मिशनरी संभव है इस प्रकार के अपयश और अपमान से भयभीत हो कर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों ने धर्म के विषय में मौन रहने की नीति हितकर समझी हो। किन्तु १६ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही इस नीति में परिवर्तन हो गया।
मार्किस वेल्सली भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त होने के बाद १७६८ ई० में कलकत्ते पहुंचा। वह महान् ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के स्वर्ण स्वप्न ले कर भारत में आया था। वह इंग्लैंड में ही इस विषय पर मनन व अध्ययन करता रहा था तथा प्रधान मन्त्री पिट से इस सम्बन्ध में कई दिन तक विचारविनिमय भी होता रहा था। शुद्ध राजनैतिक उद्देश्य के अतिरिक्त उस की यह भी उत्कट अभिलाषा थी कि भारत में ज़ोरों से ईसाई धर्म का प्रचार शुरू किया जाए। " उस ने आते ही ईसाई धर्म के अनुसार अंग्रेज़ी इलाके के अन्दर रविवार की छुट्टी का मनाया जाना जारी किया। उस दिन समाचार पत्रों का छपना भी कानून बन्द कर दिया गया। कलकत्ते के फोर्ट विलियम में उस ने एक कालेज की स्थापना की। इस कालेज का एक उद्देश्य विदेशी सरकार के लिए सरकारी नौकर तय्यार करना था। वेल्सली के जीवनचरित्र का रचयिता अार. आर. पीयर्स साफ़ लिखता है कि यह कालेज भारतवासियों में ईसाई धर्म को फैलाने का भी मुख्य साधन था। इस के द्वारा भारत की सात भिन्न भिन्न भाषाओं में इंजील का अनुवाद करा कर उस का भारतवासियों में प्रचार कराया गया।...उस की इस ईसाई धर्मनिष्ठा के लिए अंग्रेज़ इतिहास लेखक प्रायः उस की प्रशंसा करते हैं।"
__ इस प्रकार अब ईस्ट इंडिया कम्पनी साम्राज्य विस्तार के साथ साथ ईसाई धर्म का प्रचार भी उत्साहपूर्वक करने लगी। १८१३ ई० के चार्टर में यह स्पष्ट कर दिया गया कि कम्पनी भारत में धर्म और सदाचार की शिक्षा का प्रचार करना आवश्यक समझती है तथा इस लोककल्याण के कार्य के लिए लोग कम्पनी के अधिकृत प्रदेशों में जा सकेंगे। ईसाई धर्म की अनेक पुस्तकों का विविध भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया गया। भिन्न भिन्न विषयों पर ईसाई मिशनरी सोसाइटियों ने पाठ्यपुस्तकें भी तय्यार करवाई। ईसाई धर्म के प्रचार के लिए पानी की तरह रुपया बहाया जाने लगा। जगह जगह प्रारंभिक पाठशालाएं, अनाथालय, औषधालय श्रादि खोले गए और भारतीय समाज की सामाजिक बुराइयों से पूरा पूरा लाभ उठाया गया। धार्मिक पुस्तकें मुफ्त बांटी गई। भारत के धर्मों पर अनेक आक्षेप कर उन्हें हेय बताया गया। फलस्वरूप बहुत से भारतीय ईसाई बन गए। १८५७ ई० में भारत में जो प्रथम सशस्त्र स्वतन्त्रता युद्ध प्रारंभ हुआ, उस का एक मुख्य कारण भारतवासियों को ईसाई बनाने की आकांक्षा और भारतीय सैनिकों में ईसाई मत का प्रचार था। इस अशान्ति से पहले कई अंग्रेज़ राजनीतिज्ञ समझते थे कि भारतीयों के ईसाई हो जाने में ही अंग्रेज़ी साम्राज्य की स्थिरता का अाधार है। ईस्ट इंडिया कम्पनी के अध्यक्ष मिस्टर मैङ्गल्स ने विप्लव से कुछ समय पहले १८५७ ई० में ही पार्लिमैंट में कहा था, "परमात्मा ने भारत का विशाल साम्राज्य इङ्गलिस्तान को इसलिए सौंपा है ताकि हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक ईसा मसीह का विजयी झंडा फहराने लगे। हम में से हरेक को पूरी शक्ति इस काम में लगा देनी चाहिये ताकि समस्त भारत को ईसाई बनाने के महान् कार्य में देश भर के अन्दर कहीं पर भी किसी कारण ज़रा भी ढील न होने पाये।"
प्रायः उसी समय एक अन्य अंग्रेज़ विद्वान् कैनेडी ने लिखा था, "हम पर कुछ भी आपत्तियां क्यों
१. पं. सुंदरलाल : भारत में अंग्रेजी राज-पृष्ठ ४३५. २. पं. सुंदरलाल: भारत में अंग्रेजी राज--पृष्ठ १३७०.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org