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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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ज्ञान
स्वभावज्ञान
विभावज्ञान
१ केवलज्ञान
सम्यग्ज्ञान
मिथ्याज्ञान
२ मतिज्ञान
३ श्रुतज्ञान
४ अवधिज्ञान
५ मन:पर्यवज्ञान
६ मत्यज्ञान ७ श्रुताज्ञान ८ विभंगज्ञान उपर्युक्त तालिका में ज्ञानोपयोग के भेदोपभेदों का निदर्शन हो जाता है । जैन दर्शन में ज्ञान के कुल ८ भेद स्वीकार किये गये हैं। प्रकाराधारित विभाजन की दृष्टि से विचार किया जाए तो ज्ञान मूलत: दो भेदों में विभक्त होता है-स्वभावज्ञान और विभावज्ञान। स्वभावज्ञान का कोई भेद नहीं होता और विभवज्ञान पुन: दो उपभेदों में विभक्त हो जाता है। इनमें से एक सम्यक् और दूसरा मिथ्या ज्ञान कहलाता है। सम्यक्ज्ञान ४ प्रकार का माना जाता है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मनःपर्यवज्ञान और मिथ्याज्ञान के पुन: ३ भेद हो जाते हैं-मत्यज्ञान श्रु ताज्ञान तथा विभंगज्ञान ।
स्वभावशा"
स्वभावज्ञान-स्वभावज्ञान स्वत: पूर्ण और आत्मा का स्वानुभूत ज्ञान है, इसके लिए माध्यमस्वरूप इन्द्रियों तथा मन की आवश्यकता नहीं रहती । इसकी अर्जना आत्मा प्रत्यक्षतः स्वयं ही कर लेती है और यह उसका साक्षात् ज्ञान होता है । यही केवलज्ञान भी कहलाता है।
मंतिज्ञान-विभावज्ञान के अन्तर्गत सम्यग्ज्ञान का यह पहला प्रकार है। विभावज्ञान में स्वभावज्ञान के विपरीत इन्द्रियों की सहायता अपेक्षित रहती है। अतः यह असहाय न होकर सहाय-ज्ञान है । मतिज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रिय अथवा मन से होती है और इस ज्ञान का क्षेत्र जीव-अजीव के स्वरूप से सम्बन्ध रखता है।
श्रुतज्ञान-इसे आगम अथवा शब्दज्ञान भी कहा जाता है। श्रवण अथवा स्मरण इस ज्ञान का आधार होता है । आप्तवचन के पढ़ने, सुनने से ही श्रुतज्ञान की उपलब्धि होती है अथवा पूर्व में पढ़े, सुने गए आप्त बचनों के स्मरण से श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है।
अवधिज्ञान-अवधिज्ञान भी विभावज्ञान के अन्तर्गत सम्यग्ज्ञान का ही एक प्रकार है । रूपी अथवा मूर्त पदार्थों का (जो भौतिक अस्तित्वधारी हैं) ज्ञान अवधिशन कहलाता है। स्पष्ट है कि यह ज्ञान रूपी पदार्थों तक ही सीमित है और अरूंपी पदार्थों के साथ परिचय स्थापित कराने की समर्थता इसमें नहीं हुआ करती।
मनःपर्यवज्ञान-मन की विभिन्न पर्यायों का प्रत्यक्ष ज्ञान ही मन:पर्यवज्ञान होता है। यह भी सम्यग्ज्ञान की श्रेणी में परिगणित विभावज्ञान है।
मत्यज्ञान-विभावज्ञान की द्वितीय श्रेणी मिथ्याज्ञान के अन्तर्गत प्रथम भेद मत्यज्ञान (मति अज्ञान) है। यह मतिविषयक मिथ्याज्ञान है। यह ऐसा मिथ्याज्ञान है जिसका सम्बन्ध जीव-अजीव से होता है और जिसकी उत्पत्ति इन्द्रिय अथवा मन से होती है।
श्रुताज्ञान-श्रु ताज्ञान भी मिथ्याज्ञान है । श्रुतविषयक मिथ्याज्ञान ही श्रुताज्ञान (श्रुत अज्ञान) होता है।
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