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________________ साध्वारत्न पुष्पवता ओभनन्दन ग्रन्थ ...'ttaran. timeMILAWIMMINIMILARAMETAIPHONNARTMENT meerammammeetin अर्थात् पाँवों को सावधानीपूर्वक रखो । इस प्रकार जैनेतर ग्रन्थों में भी अहिंसा के भाव दिखायी देते हैं। इस संसार में जहाँ कहीं भी दृष्टि पड़ती है, वहाँ प्राणी हिंसा करता हुआ दिखायी देता है। आखिर इनके मूल में क्या है ? सर्वेक्षण करने पर पता चलता है कि हिंसक व्यक्ति छल-कपट, दांव-पेंच, क्रोध-मान, माया-लोभ आदि कषायों से ग्रसित रहता है । जिसके परिणामस्वरूप हिंसक, जघन्य अपराध करता रहता है । अगर हम उनको यह उपदेश दें कि ये काम नहीं करने चाहिए। इनमें हिंसा निहित है या ये बुराइयों से युक्त हैं तो काम नहीं चलेगा। उसे ऐसे सरल उपाय बताने पड़ेंगे जिन्हें वह जीवन में सरलता से उतार सके क्योंकि नैतिक तत्व केवल उपदेश से गले नहीं उतरते अपितु उनको व्यावहारिकता में लाना आवश्यक है। केवल ऐसे उपदेशों से भी काम नहीं चलता बल्कि विभिन्न दृष्टान्तों, उदाहरणों के साथ स्वयं अपने आचरण के प्रयोग से ही सम्भव हो सकेगा। प्राणियों में जहाँ स्व-पर का भेद दिखाई देगा वहाँ हिंसा की भावना रहेगी। इसी बात को समणसुत्त में कहा गया है-"तुम स्वयं से (स्वयं के लिए) जो कुछ चाहते हो, (क्रमशः) उसको (तुम) दूसरों के लिए चाहो और (न चाहो), इतना ही जिन-शासन (है)।" यदि वह सोचे जो मेरे लिए ठीक नहीं वह दूसरों के लिए कैसे ठीक हो सकता है । क्योंकि दूसरों का अहित अपना अहित है । दूसरों का हित अपना हित है । ऐसा कार्य करके अगर वे बता देंगे तो हिंसक प्राणी के दिल-दिमाग में यह बात ठीक बैठ जायेगी जो कुछ मैं कर रहा हूँ वह अलग है तथा उसकी हिंसक भावनाएँ, धीरे-धीरे गलने लगेगी। महात्मा गांधी के भी यही विचार थे। उन्होंने इस सिद्धान्त का व्यावहारिक जगत में प्रयोग कर लोगों को अहिंसा का मूल मन्त्र समझाया । अनेक लोगों ने इसका अनुसरण भी किया। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने भी अपने पंचशील के सिद्धान्त में अहिंसा को प्रमख स्थान दिया। इस स्वपर से तमत्व एवं एकत्व की भावना को बढ़ावा ि जब तक प्राणी में “जीओ और जीने दो' की भावना घर नहीं करती तब तक उसमें ईर्ष्याद्वैष, वैमनस्य, छल-कपट आदि बुराइयाँ उसके आस-पास मण्डराती रहेगी। आचारांग में इसी बात की पुष्टि करते हुए कहा गया है :-"सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है, सभी को सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय लगता है, वध अप्रिय लगता है, जीवन सभी को प्रिय लगता है। इस बात से मनुष्य संवेदनशील बनता है तथा "जीओ और जीने दो" की भावना का विकास होता है तथा दूसरों के कष्ट को समझने की क्षमता आती है। प्रत्येक व्यक्ति धन-दौलत आदि वस्तुओं के संचय में लगा रहता है चाहे उसे आवश्यक हो या न हो। इसके लिए चाहे कितने ही गलत से गलत काम क्यों न करने पड़ते हों। फिर भी प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध रहता है। जिसके परिणामस्वरूप गलत प्रवृत्तियों का विकास होता है जिसमें सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक विषमताएँ फैल जाती हैं । मानव, दानव बनकर रह जाता है । इसलिए व्यक्ति को . जालना दे। । 1. सोगानी, डा. कमलचन्द जी, समणसुत्त चयनिका, गा० नं0 15 । 2. सव्वे पाणा पिआउया सुहसाता दुक्ख पडिकूला अप्पियवधा । पियजीविणो जीवितुकामा । सव्वेसि जीवितं पियं ॥ -सोगानी, डा० कमलनन्द जी, आचांराग चयनिका, पृ. 24 आज के जीवन में अहिंसा का महत्त्व : डॉ. हुकमचन्द जैन | २१६ www. Ima
SR No.210211
Book TitleAaj ke Jivan me Ahimsa ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Jain
PublisherZ_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf
Publication Year1997
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ahimsa
File Size634 KB
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