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४५४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्य
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इसका समान अधिकार था। इनका 'शब्दानुशासन' संस्कृत, प्राकृत अथा अपभ्रंश भाषाओं के व्याकरण का ज्ञान कराने में अत्यधिक उपयोगी है । अपभ्रंश भाषा के लिए उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है । शब्दानुशासन में अपभ्रंश भाषा का भी व्याकरण लिखकर आचार्यश्री ने एक बड़ा ही ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न किया है तथा अपभ्रंश भाषा को संरक्षण प्रदान किया है। बाद के विद्वानों द्वारा अपभ्रंश की जो खोज हो सकी है, उसका मुख्य श्रेय आ० हेमचन्द्र को ही है । लघु होते हुए भी इनका अपभ्रंश व्याकरण सर्वांगपरिपूर्ण, सरल व स्पष्ट है। पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने हेमचन्द्र के तीन महत्त्वों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है
'हेमचन्द्र ने पीछे न देखा तो आगे देखा, उधर का छूटा तो इधर बढ़ा लिया। अपने समय तक की भाषा का विवेचन कर डाला। यही हेमचन्द्र का पहला महत्त्व है कि और वैयाकरणों की तरह केवल पाणिनि के लोकोपयोगी अंश को अपने ढचर में बदलकर ही वह संतुष्ट न रहा, पाणिनि के समान पीछा नहीं तो आगा देखकर अपने समय, तक की भाषा का व्याकरण बन गया।'
'अपभ्रंश के अंश में उसने पूरी गाथाएँ, पूरे छन्द और पूरे अवतरण दिये । यह हेमचन्द्र का दूसरा महत्त्व है।-अपभ्रश के नियम यों समझ में नहीं आते । मध्यम पुरुष के लिए 'पई' शपथ में 'थ' की जगह 'ध' होने से 'सवध' और मक्कड़घुग्धि का अनुकरण प्रयोग बिना पूरा उदाहरण दिये समझ में नहीं आता।'
तीसरा महत्त्व हेमचन्द्र का यह है कि वह अपने व्याकरण का 'पाणिनि' और 'भट्टोजिदीक्षित' होने के साथसाथ उसका 'मट्टि' भी है। उसने अपने संस्कृत-प्राकृत द्वयाश्रय काव्य में अपनी व्याकरण के उदाहरण भी दिए हैं तथा सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल का इतिहास भी लिखा है । भट्टि और भट्टभौमिक की तरह वह अपने सूत्रों के क्रम से चलता है।'
आ० हेमचन्द्र के व्यक्तित्व और कृतित्व से आकृष्ट होकर गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह ने इनको पर्याप्त सम्मान दिया । सिद्धराज से ही प्रेरणा पाकर इन्होंने 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' की रचना की थी। वि० सं० ११६६ में सिद्धराज की मृत्यु होने के पश्चात् कुमारपाल सिंहासनारूढ़ हुआ । हेमचन्द्र से प्रभावित होकर उसने अपने राज्य में जीवहत्या बन्द करा दी थी तथा कुछ समय पश्चात् जैनधर्म धारण कर जुआ और मद्यपान को भी प्रतिबन्धित कर दिया था। उसने अपने राज्य को सदैव दुर्व्यसनों से मुक्त रखने का प्रयत्न किया और अनेक जैनमन्दिरों तालाबों धर्मशालाओं और विहारों का भी निर्माण कराया । इस प्रकार वह बहुत समय तक भली-मांति प्रजा का पालन करता रहा । कुमारपाल की मृत्यु सन् ११७४ (वि० सं० १२३१) में हुई । कुमारपाल की मृत्यु से छह माह पहले हेमचन्द्र का स्वर्गवास हो गया था।
ऐसा माना जाता है कि अन्तिम समय में आ० हेमचन्द्र ने 'प्रमाण-मीमांसा' की रचना की थी। यह उनकी अपूर्ण रचना है। पांच अध्यायों में इसकी रचना किये जाने का यद्यपि उल्लेख मिलता है परन्तु वर्तमान में प्रथम अध्याय पूर्ण (प्रथम तथा द्वितीय आह्निक) तथा द्वितीय अध्याय अपूर्ण (प्रथम आहिक मात्र) ही मिलता है। शेष ग्रन्थ को आचार्यश्री या तो वृद्धावस्था के कारण पूर्ण नहीं कर सके हैं अथवा पूर्ण कर भी लिया है तो फिर यह काल-कवलित हो जाने से आज उपलब्ध नहीं हैं। सूत्रशैली में प्रथित और स्वोपज्ञवृत्ति सहित इस लघुग्रन्थ में प्रमाण और प्रमेय की साङ्गोपाङ्ग जानकारी दी गयी है । प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय आदि तत्त्वों का इसमें सुन्दर निरूपण है । अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से इन्होंने बहुत कुछ ग्रहण किया तथा बहुत-सी मौलिक उद्भावनाएँ भी की है । जैनदर्शन तथा अन्यदर्शन सम्बन्धी कृतियों के परिप्रेक्ष्य में प्रमाण-मीमांसा का अध्ययन करने पर यह बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है। श्रद्धय पं० सुखलाल जी संघवी ने इस दृष्टि से प्रमाणमीमांसा पर एक विस्तृत टिप्पण लिखा है, जिसकी विद्वानों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है।
आ० हेमचन्द्र की अगाध विद्वत्ता का दाय उनके शिष्यों को मिला और उन्होंने साहित्य की श्रीवृद्धि करने में चार-चांद लगा दिए । उनके शिष्यों में रामचन्द्रसूरि की प्रसिद्धि सम्पूर्ण देश में फैली हुई थी और उस समय के विद्वानों में हेमचन्द्र के बाद इन्हीं का नाम लिया जाता था। इसके अतिरिक्त गुणचन्द्र, महेन्द्रसूरि, वर्धमानगणि, देवचन्द्र , उदयचन्द्र, यशश्चन्द्र, बालचन्द्र आदि दूसरे शिष्य थे । इन सबका साहित्यिक क्षेत्र में महान योगदान है।
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