SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ खण्ड / १३८ आन्तरिक गुण व शक्ति की मात्रा निहित होती है, वैसे हो सद्योग-साधक की आन्तरिक विशेषताएँ अन्य जीवों की तुलना में अधिक प्रभावशाली होती हैं, और वे ही यथासमय यौगिक उपलब्धियों के रूप में पुष्पित व फलित होती हैं। ११. सुवर्णघट-दृष्टान्त जैसे सुवर्ण का घट स्वयं में मूल्यवान व उपयोगी होता है, यहां तक कि टूट जाने पर भी उसका मूल्य कम नहीं होता। उसी प्रकार, सम्यग्दृष्टि साधक द्वारा किया गया शुभ अनुष्ठान काषायोदय से भग्न होने पर भी प्रशस्तता से वंचित नहीं होता।८८ १२. वणिग्वत्सक-दृष्टान्त इस दृष्टान्त का संकेत दशवैकालिकवत्ति में किया गया है। मुनि की भिक्षा-चर्या का स्वरूप बताने हेतु इसका प्रयोग है । किसी बनिये ने गाय के बछड़े को पाल रखा है । उस बनिये की पत्नी है जो विविध मनोरम अलंकारों से सजी-संवरी रहती है। किन्तु वह उस बछड़े को नित्य प्रति अपने हाथों से खाना खिलाती है। वहाँ, जैसे उस बछड़े की उस स्त्री के मनोरम रूप या बहुमूल्य अलंकारों की ओर दृष्टि नहीं रहती, मात्र खाद्य पदार्थ पर रहती है, वैसे ही मुनि की दृष्टि भी मात्र भिक्षा पर ही होती है या उसकी शुद्धता-अशुद्धता पर रहती है, किन्तु देने वाले के वैभव आदि पर उसका मन लालायित नहीं होता।८६ १३. समेघ-अमेघरात्रिदर्शन-दृष्टान्त योगदृष्टिसमृच्चय में आठ योग-दृष्टियों के स्वरूप को समझाने हेतु रोचक दृष्टान्त प्रस्तुत किए गए हैं । जैसे कोई व्यक्ति एक ही पदार्थ को मेघाच्छन्न रात्रि में देखे, दिन में सूर्य के 'प्रकाश में देखे' अथवा मेघरहित साफ चांदनी रात में देखे, प्रत्येक परिस्थिति में जो दर्शन होगा वह दूसरी परिस्थिति में होने वाले दर्शन से कुछ भिन्न होगा। इसी तरह रोगयुक्त अाँख से देखने में और नीरोग आँखों से देखने में अन्तर होगा ही। प्राचार्य हरिभद्र ने इन दृष्टान्तों के माध्यम से विविध योगदष्टियों में दर्शन या वैचारिक स्थिति की भिन्नता को हृदयंगम कराया है। साधक की प्रान्तरिक योग्यता के तारतम्य के कारण ही विचारभेद या भावनाभेद होते हैं। इस तरह अन्य अनेकों दृष्टान्त हैं, उन सबका निरूपण इस सीमित निबन्ध में कर पाना कठिन है । इतना निश्चित है कि उक्त दृष्टान्तों से हम आचार्य की बहुश्रुतता, विविधशास्त्रज्ञता, लौकिक व्यवहारनिपुणता तथा उपदेश-कुशलता आदि गुणों का सहज आकलन कर सकते हैं, उन्होंने इन न्यायों व दृष्टान्तों के माध्यम से विषय-वस्तु को तो अधिक स्पष्ट किया ही है, धर्मोपदेश को लौकिक धरातल से, लोक-जीवन से, जोड़ने का प्रयास भी किया है। इसके अलावा धर्म-प्रभावना को भी नया आयाम मिला है। संदर्भ-स्थल१. मनुस्मृति ४११३९, शुक्रनीति ३।६२, महाभारत शान्तिपर्व, ३४९।७१ निशीथ-भाष्य २६ १३, उत्तराध्ययनसूत्र १७४१२, सूत्रकृतांग १।३।३।१९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210200
Book TitleHaribhadra ke Grantho me Drushtant va Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDamodar Shastri
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy