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सल्लेखनाधारी उन पांच दोषोंसे भी अपनेको बचाता है जो उसकी पवित्र सल्लेखनाको कलङ्गित करते हैं । वे पाँच दोष निम्न प्रकार हैं :
जीवित-मरणाऽऽशंसे भय-मित्रस्मृति-निदान-नामानः ।
सल्लेखनाऽतिचाराः पञ्च जिनेन्द्रः समादिष्टाः ।। 'सल्लेखना धारण करनेके बाद जीवित बने रहने की आकांक्षा करना, जल्दी मरनेकी आकांक्षा करना, भयभीत होना, स्नेहियोंका स्मरण करना और अगली पर्यायके इन्द्रियसुखोंकी इच्छा करना ये पाँच बातें सल्लेखनाको दूषित करनेवाली कही गई हैं।' उत्तम समाधिमरणका फल स्वामी समन्तभद्रने लिखा है कि
निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तोरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् ।
निःपिवति पोतधर्मा सर्वैर्दुःखैरनालीढः ॥ 'उत्तम समाधिमरणको करनेवाला धर्मरूपी अमृतको पान करनेके कारण समस्त दुःखोंसे रहित होता हुआ निःश्रेयस और अभ्युदयके अपरिमित सुखोंको प्राप्त करता है ।' क्षपककी सल्लेखनामें सहायक और उनका महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य
इस तरह ऊपरके विवेचनसे सल्लेखनाका महत्त्व स्पष्ट है और इसलिये आराधक उसे बड़े आदर, प्रेम तथा श्रद्धाके साथ धारण करता है और उत्तरोत्तर पूर्ण सावधानीके साथ आत्म-साधनामें तत्पर रहता है। उसके इस पुण्यकार्यमें, जिसे एक 'महान् यज्ञ' कहा गया है, पूर्ण सफलता मिले और अपने पवित्र पथसे विचलित न होने पाये, अनुभवी मुनि (निर्यापक) सम्पूर्ण शक्ति एवं आदरके साथ सहायता करते हैं और आराधकको समाधिमरणमें सुस्थिर रखते हैं । वे उसे सदैव तत्त्वज्ञानपूर्ण मधुर उपदेशों द्वारा शरीर और संसारकीअसारता एवं नश्वरता बतलाते हैं, जिससे वह उनमें मोहित न होवे ।' समाधिमरणकी श्रेष्ठता
आचार्य शिवार्यने 'भगवतो आराधना' में सतरह प्रकारके मरणोंका उल्लेख करके पांच तरहके मरणोंका वर्णन करते हए तीन मरणोंको उत्तम बतलाया है। लिखा है कि
पंडिदपंडिदमरणं च पंडिदं बालपंडिदं चेव । एदाणि तिणि मरणाणि जिणा णिच्चं पसंसंति ॥२७॥
'पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण और बालपण्डितमरण ये तीन मरण सदा प्रशंसायोग्य है।'
१. भ० आ० गा० ६५०-६७६ । । २. पंडिदपंडिदमरणं पंडिदयं बालपंडिदं चेव ।
बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च ।। 'पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण, बालपण्डितमरण, बालमरण और बालबालमरण ये पाँच मरण हैं। भ० आ० गा० २५ ।
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