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________________ ..................... ....................... .........mammna m asoo (साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ उत्तम मनुष्यों की हित में प्रीति होती है और साधारण मनुष्यों को जो इष्ट है वही प्रिय होता है, यह पुराण हितरूप भी है और प्रिय भी है अतः सभी को अच्छी तरह संतुष्ट करता है । जैन सिद्धान्त में आत्मतत्त्व का विस्तृत विवेचन किया गया । और जैनाचार्यों ने आत्म-तत्त्वज्ञान पर विशेष जोर दिया है। इसी तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार की दृष्टि को रखकर जिनसेनाचार्य ने भी पुराण की रचना की, जिसमें उन सभी सिद्धान्तों का कथानकों के साथ समावेश हो गया, जिन्हें पूर्वाचार्यों ने लिपिबद्ध किया था। अतः प्रस्तुत पुराण जैनागमों और जैनदर्शन में अपना महत्वपूर्ण रखता है । इसलिए यह पुराण श्रेष्ठ कहा जाता है । इसकी श्रेष्ठता का एकमात्र कारण है स्वाध्याय । भारतीय दर्शन मूलतः आध्यात्मिक दर्शन है। इसे वैदिक और अवैदिक दो रूप में विभाजित किया जा सकता है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा और वेदांत वैदिक दर्शन हैं। वेद को प्रमाण मानने के कारण यह वैदिक दर्शन माने जाते हैं। सांख्य और मीमांसा निरीश्वरवादी कहे जाते हैं, फिर भी वेदों को प्रमाण मानने के कारण वैदिक दर्शन हैं। न्याय-वैशेषिक आत्मा, ईश्वर, जगत् और मोक्ष के विषय में समान मत रखते हैं। ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है । जगत् का प्रत्येक परमाणु नित्य है। ईश्वर की तरह वे अनादि और अनन्त हैं। उनको नष्ट नहीं किया जा सकता है । ईश्वर जगत् के परमाणुओं का निर्माण करता है, इसलिए वह जगत् का निमित्त कारण कहा जाता है और परमाणु जगत् के उपादान कारण हैं। सांख्य निरीश्वरवादी दर्शन है । इसमें प्रकृति और पुरुष को ही विशेष महत्व दिया है । पुरुष ही दुःख-निवृत्तिकर मोक्ष-सुख को प्राप्त कर लेता है। योगदर्शन सांख्य की तरह निरीश्वरवादी नहीं है। उसने ईश्वर को जगत् का कारण माना है । जब व्यक्ति अपनी चितवृत्तियों से रहित हो जाता है, तब वह ईश्वरीय कारणों को प्राप्त कर लेता है, स्वयं ईश्वर नहीं बन जाता है। मीमांसा ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते हुए भी सर्वज्ञ को विशेष महत्व देता है । वेदांत दर्शन ब्रह्म का स्वरूप ही सब कुछ मानता है। अज्ञान का अभाव हो जाने से जीव ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है । बौद्ध का ईश्वर सुगत है, वे उसकी ही भक्ति-आराधना आदि करते हैं, पर उसे अन्य दार्शनिकों की तरह इष्ट अनिष्ट फल देने वाला नहीं मानते। इसलिए बौद्ध भी अनीश्वरवादी है । जैनदर्शन आत्मा का शुद्ध स्वभाव ही परमात्मा रूप स्वीकार करता है । प्रत्येक आत्मा अनन्त ऐश्वर्य गुणों से युक्त है, जो आत्मा शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है, वही परमात्मा कहलाने लगता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आत्मा ही परमात्मा रूप है, प्रत्येक आत्मा परम-पद को प्राप्त कर सकता है। __ आचार्य जिनसेन ने भी ब्रह्मतत्त्व को स्वीकार किया है, पर वेदांत दर्शन की तरह ब्रह्मस्वरूप ही सब कुछ नहीं माना। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पंच-परमेष्ठियों को वे पंच-ब्रह्मस्वरूप मानते हैं । जो योगिजन परमतत्त्व परमात्मा का बार-बार ध्यान करते हैं, वे 'ब्रह्मतत्त्व' को जान लेते हैं। इससे आत्मा में जो परम आनन्द होता है, वही जीव का सबसे बड़ा ऐश्वर्य है। इस तथ्य से यह सिद्ध हो जाता है कि आत्मा ही ब्रह्मतत्त्व रूप है, प्रत्येक आत्मा ब्रह्मतत्त्व रूप है। इस ब्रह्मतत्त्व की शक्ति की अभिव्यक्ति का नाम परमात्मा या परमब्रह्म है। यह परमब्रह्म ही ऐश्वर्य 1. आदिपुराण 21/229-237 ७४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य www.jainellorence
SR No.210187
Book TitleAcharya Jinasena ka Darshanik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherZ_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf
Publication Year1997
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size899 KB
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