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आचारांगसूत्र : एक विश्लेषण विश्लेषण प्राप्त होता है सूत्रकार स्पष्ट रूप से कहता है कि- "आसं च छंदं च विगिंच धीरे तुमंच चेव तं सल्लमाहरु – ११२२४१ हे धीर पुरुष ! विषय भोगों की आकांक्षा और तत्संबंधी संकल्प-विकल्पों का परित्याग करो। तुम स्वयं इस काँटे को अपने अन्तःकरण में रखकर दुःखी हो रहे हो। इस प्रकार आचारांग बन्धन, पीड़ा या दुःख के प्रति एक आत्मनिष्ठ एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। वह कहता है— जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा, ते आसवा (१।४।२) अर्थात् बाहर में जो बन्धन के निमित्त हैं वे भी कभी मुक्ति के निमित्त बन जाते हैं इसका आशय यही है कि बन्धन और मुक्ति का सारा खेल साधक के अंतरंग भावों पर आधारित है। यदि इसी प्रश्न पर हम आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि आधुनिक मनोविकृतियों के कारणों का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि आकांक्षाओं का उच्चस्तर ही मन में कुण्ठाओं को उत्पन्न करता है और उन कुण्ठाओं के कारण मनोग्रन्थियों की रचना होती है, जो अन्ततोगत्वा व्यक्ति में मनोविकृतियों को उत्पन्न करती है।
मनोवृत्तियों की सापेक्षता
आचारांगसूत्र में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग (प्रेम), द्वेष, मोह आदि की परस्पर की सापेक्षता को सूचित करते हुए यह बताया गया है कि जो इनमें से किसी एक को भी सम्यक् प्रकार जान लेता है वह अन्य सभी को जान लेता है और जो एक पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है, वह अन्य सभी पर विजय प्राप्त कर लेता है। (जे एगं जाणइ से सव्वं जाणड़, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ, जे एगं नामे से बहुं नामे जे बहुं नामे से एगं नामे - ११३१४) आश्चर्य यही है कि अभी तक इन सूत्रों के तत्त्वमीमांसीय या ज्ञानमीमांसीय अर्थ लगाये गये और इनके मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ को ओझल किया गया, जबकि ये सूत्र विशुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक हैं, क्योंकि इस उद्देशक का सम्पूर्ण सन्दर्भ कषायों से सम्बन्धित है, जो मनोविज्ञान का विषय है। इन कषायों के दुशक्र से वही मुक्त हो सकता है, जो अप्रमत्त चेता है, क्योंकि जैसे ही व्यक्ति इनके प्रति सजग बनता है, इनके कारणों और परिणामों को देखने लगता है, वह मनोवृत्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट होते हुए पाता है जब व्यक्ति क्रोध को देखता है, तो क्रोध के कारणभूत द्वेषभाव और द्वेष के कारणभूत रागभाव को भी देख लेता है। जब वह अहं या मान का द्रष्टा बनता है, तो अहं की तुष्टि के लिये मायावी मुखौटों का जीवन भी उसके सामने स्पष्ट हो जाता है । सूत्रकार ने पूरी स्पष्टता के साथ इस बात को प्रस्तुत किया कि किस प्रकार किसी एक मनोवृत्ति ( कषाय) का द्रष्टा दूसरी सभी सापेक्ष रूप में रही हुई मनोवृत्तियों का द्रष्टा बन जाता है। वह कहता है— जो क्रोध को देखता है, वह मान (अंहकार) को देख लेता है। जो मान को देखता है वह माया ( कपटवृत्ति) को देख लेता है। जो माया को देखता है वह लोभ को देख लेता है जो लोभ को देखता है वह राग-द्वेष को देख लेता है। जो राग-द्वेष को देखता है,
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६३ वह मोह (अविद्या) को देख लेता है, और जो मोह को देखता है। वह गर्भ (भावी जन्म) को देखता है और जो गर्भ को देखता है वह जन्म-मरण की प्रक्रिया को देख लेता है। इस प्रकार एक कषाय का सम्यक् विश्लेषण उससे संबंधित अन्य कषायों का तथा उनके परिणामों और कारणों का सम्यक् बोध करा देता है (१।३।४), क्योंकि सभी मनोवृत्तियाँ परस्पर सापेक्ष होकर रहती हैं। जहाँ मोह होता है वहाँ राग-द्वेष होते हैं, वहाँ लोभ होता ही है। जहाँ लोभवृत्ति होती है वहाँ माया या कपटाचार आ ही जाता है। जहाँ कपटाचार होता है वहाँ उसके पीछे मान या अहंकार का प्रश्न जुड़ा रहता है और जहाँ मान या अहंकार होता है उसके साथ क्रोध जुड़ा रहता है राग के बिना द्वेष का और द्वेष के बिना राग का टिकाव नहीं है। इसी प्रकार क्रोध का टिकाव अहंकार पर और अहंकार का टिकाव मायाचार पर, मायाचार का टिकाव लोभ पर निर्भर करता है। कोई भी कषाय दूसरी कषाय से पूरी तरह निरपेक्ष होकर नहीं रह सकती है, अतः किसी एक कषाय का समग्र भाव से विजेता सभी कषायों का विजेता बन जाता है और एक का द्रष्टा सभी का द्रष्टा बन जाता है।
कषाय- विजय का उपाय
द्रष्टा या साक्षीभाव
आचारांग में मुनि और अमुनि का अन्तर स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि जो सोता है, वह अमुनि है, जो जागता है वह मुनि है। यहाँ जागने का तात्पर्य है अपने प्रति, अपनी मनोवृत्तियों के प्रति सजग होना या अप्रमत्तचेता होना है। प्रश्न हो सकता है कि अप्रमत्तचेता या सजग होना क्यों आवश्यक है? वस्तुतः जब व्यक्ति अपने अन्तर में झाँककर अपनी वृत्तियों का द्रष्टा बनता है तो दुर्विचार और दुष्प्रवृत्तियाँ स्वयं विलीन होती जाती हैं जब घर का मालिक जागता है तो चोर प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार जो साधक सजग है, अप्रमत्त हैं, तो उनमें कषायें पनप नहीं सकतीं, क्योंकि कषाय स्वयं प्रमाद है, तथा प्रमाद और अप्रमाद एक साथ नहीं रह सकते हैं अतः अप्रमाद होने पर कषाय पनप नहीं सकते। आचारांगसूत्र में बार-बार कहा गया है, 'तू देख' 'तू देख' (पास! पास!)। यहाँ देखने का तात्पर्य है अपने प्रति या अपनी वृत्तियों के प्रति सजग होना क्योंकि जो द्रष्टा है, वही निरुपाधिक दशा को प्राप्त हो सकता है (किमत्थि उवाही पासगस्स ण विज्जइ ? नत्थि १।३।४) ।
वस्तुतः आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होती है, संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भिन्न) प्रतीत होते हैं। जब वह 'पर' को 'पर' के रूप में जान लेता है और उससे अपनी पृथकता का बोध कर लेता है तब वह अपने शुद्ध शयक स्वरूप को जानकर उसमें अवस्थित हो जाता है। यही यह अवसर होता है, जब मुक्ति का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने 'पर' को 'पर' के रूप में जान लिया है उसके लिए ममत्व या राग के लिए कोई स्थान ही
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