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________________ प्राणैः प्रियतराः पुत्राः पुत्रैः प्रियतरं धनम् । स तस्य हरते प्राणान् यो यस्य हरते धनम् ॥ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य अपरिग्रह की प्रशंसा करते हुए कहा गया है - तस्मै धर्मभृते देयं यस्य नास्ति परिग्रहः । परिग्रहे तु ये सक्ता, न ते तारयितुं क्षमाः ॥ वही, पृ. ५९. कामभोग से व्यक्ति कभी तृप्त नहीं होता, इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा गया है- नाग्निस्तुष्यति काष्ठानां, नापगानां महोदधिः । नान्तकृत्सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना ॥ वही. पृ. ७५. साधु को किसी वस्तु का लाभ होने पर मद नहीं करना चाहिए तथा अलाभ होने पर खेद नहीं करना चाहिए। जैसा कि कहा गया है- लभ्यते लभ्यते साधु, साधु एव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धिर्लब्धे देहस्य धारणा । वही, पृ. ५५ -वही, पृ. ८१. इसी प्रकार स्थान-स्थान पर प्राकृत गाथाएँ भी उद्धृत की गई हैं। इन उद्धरणों से विषय विशेष रूप से स्पष्ट होता है एवं पाठक तथा श्रोता की रुचि में वृद्धि होती है। Americ Jain Education International नास्तिकमतचर्चा, सांख्यमतचर्चा, ईश्वरकर्तृत्वचर्चा, नियतिवादचर्चा, भिक्षुवर्णन, आहारचर्चा, वनस्पतिभेद, पृथ्वी कायादिभेद, स्याद्वाद, आजीविकमतनिरास, गोशालकमतनिरास, बौद्धमतनिरास, जातिवादनिरास इत्यादि । प्रस्तुत चूर्णि संस्कृतमिश्रित प्राकृत में लिखी गई है। इतना ही नहीं, चूर्णि को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें प्राकृत से भी संस्कृत का प्रयोग अधिक मात्रा में है। नीचे कुछ उद्धरण दिए जाते हैं जिन्हें देखने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि इसमें प्राकृत का कितना अंश है व संस्कृत का कितना । 'एतदिति' यदुक्तमुच्यते वा सारं विद्धीति वाक्यशेषः, यत्किं ? उच्यते, जेण हिंसति किंचणं, किंचिदिति त्रसं स्थावरं वा, अहिंसा हि ज्ञानगतस्य फलं तथा चाह योऽधीत्य शास्त्रमखिलं ... एवं खु णाणिणां सारं.....। -- सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. ६२ विउट्ठितो णाम विच्युतो यथा व्युत्थितोऽस्य विभवः संपत्व्युत्थिताः संयमप्रतिपन्न इत्यर्थः, पार्श्वस्थादीनामन्यतमेन वा क्वचिन्प्रमादाच्च कार्येण वा त्वरितं गच्छन् जहा तुज्झं ण...? -- वही, पृ. २८८. सूत्रकृतांगचूर्णि इस चूर्णि की शैली भी वही है जो आचारांगचूर्णि की है। इसमें निम्न विषयों पर प्रकाश डाला गया है- मंगलचर्चा, तीर्थसिद्धि, संघात, विरासाकरण, बन्धनादिपरिणाम, भेदादिपरिणाम, क्षेत्रादिकरण, आलोचना, परिग्रह, ममता, पंचमहाभूतिक, एकात्मकवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकात्मवाद, स्कन्धवाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, कर्तृवाद, त्रिराशिवाद, लोकविचार, प्रतिजुगुप्सा (गोमांस, मद्य, लसुन, पलांडु आदि के प्रति अरुचि), वस्त्रादिप्रलोभन, शूरविचार, महावीरगुण, महावीरगुणस्तुति, कुशीलता, सुशीलता, वीर्यनिरूपण, समाधि, दानविचार, समवसरणविचार, वैनयिकवाद, ট[ ३३ ] लोगेवि भण्णइ - छिण्णसोता न दिंति, सुठु संजुत्ते सुसंजुत्ते, सुठु समिए सुसमिए, समभाव: सामायिकं सो भणई-सुट्टु सामाइए सुसामाइए, आतरापत्ते विऊत्ति अप्पणो वादो अत्तए वादो २ यथा अस्त्यात्मा नित्य: अमूर्त्तः कर्त्ता भोक्ता उपयोगलक्षणो य एवमादि आतप्पवादो...।' - वही, पृ. ३०७ अहावरे चउत्थे (सू.५) णितिया जाव जहा जहा मे एस धम्मे सुअक्खाए, करे ते धम्मे? णितियावादे, इह खलु दुवे पुरिसजाता एमे पुरिसे किरियामक्खंति, किरिया कर्म परिस्पन्द इत्यर्थः कस्यासौ किरिया ? पुरुषस्य, पुरुष एव गमनादिषु क्रियासु स्वतो अनुसन्धाय प्रवर्त्तते, एव भणित्तापि ते दोवि पुरिसा तुल्ला णियतिवसेण, तत्र नियतिवादी आत्मीय दर्शनं समर्थयन्निदमाहयः खलु मन्यते 'अहं करोमि इति' असावपि नियत्या एव कार्यते अहं करोमीति...? वही, पृ. ३२२-३ जीतकल्प- बृहच्चूर्णि प्रस्तुत चूर्णि सिद्धसेनसूरि की कृति है। इस चूर्णि के POGONO For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210168
Book TitleAgamik Churniya aur Churnikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size2 MB
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