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विभिन्न संज्ञाए :
उपलब्धता, अधिकता और कमी को ध्यान में रखते हुये भगवतीसूत्र में वनस्पतिकाय में दस आहार संज्ञा इत्यादि ऋतुओं के अनुसार अपना आहार (पोषण) ग्रहण करती हैं। भी बतलाई गई हैं। इन संज्ञाओं के अस्तित्व के कारण इससे यह भी प्रमाणित होता है कि पौधे संकट काल के लिये वनस्पति में अस्पष्ट रूप से वे सब व्यवहार होते हैं जो मनुष्य भी अपने अंगों में आहार संचित कर रख लेते हैं। इसी ग्रन्थ या विकसित प्राणी स्पष्ट रूप से करते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक में गौतम गणधर ने यह जिज्ञासा प्रकट की है कि यदि ग्रीष्म जगदीश चन्द्र बोस आदि ने इसी बात को वैज्ञानिक दृष्टि से ऋतु में पौधे कम आहार लेते हैं तो उस समय अनेक पौधे हरेसिद्ध भी किया है।
भरे एवं पुष्प एवं फलों से युक्त कैसे होते हैं? तब भगवान अंकुरण क्षमता का समय :
महावीर ने समाधान करते हुये कहा कि ग्रीष्म ऋतु में उष्ण भगवतीसूत्र में विभिन्न प्रकार के कृषि उत्पादनों के योनि वाले कुछ ऐसे वनस्पतिकाय जीव होते हैं जो उष्णता के अन्तर्गत अनेक प्रकार के पेड़-पौधों और बीजों का विवरण वातावरण में भी विशेष रूप में उत्पन्न होते हैं, वृद्धि को प्राप्त प्राप्त होता है। वहां यह बतलाया गया है कि किस प्रकार करते हैं व हरे-भरे रहते हैं। वनस्पति के विकास का यह क्रम विभिन्न प्रकार के बीज पौधों के रूप में विकसित होते हैं। और नियम आधुनिक वनस्पति विज्ञान से भी प्रमाणित है। ग्रन्थ के छठवें शतक के सातवें साली नामक उद्देशक में परासरण की क्रिया :कहा गया है कि यदि कमल आदि जाति सम्पन्न चावल भगवतीसूत्र में यह भी कहा गया है कि वनस्पतिकाय में (शाली), सामान्य चावल (ब्रीहि), गेंहू (गोधूम), जौ (यव), जो मूल वनस्पति हैं और कन्द वनस्पति हैं, इन सबके जीव इत्यादि धान्य कोठे में सुरक्षित रखे हों, बांस के पटले में, अपनी-अपनी जाति के जीवों से जुड़े होते हैं व व्याप्त होते मंच पर, बर्तन में डालकर विशेष प्रकार से लीपकर, छंदित हैं किन्तु वे पृथ्वी के साथ जुड़े होने से अपना आहार ग्रहण किये हुये, लांछित करके रखे हुये हों तो उनकी अंकुरोप्ति करते हैं और उस आहार को विशेष प्रक्रिया द्वारा वृक्ष के में हेतु भूत शक्ति योनि कम से कम अन्तर्मुहूर्त तक और सभी अंगों को वे पहंचाते रहते हैं। अधिक से अधिक तीन वर्ष तक कायम रहती है।
वनस्पति की इस प्रक्रिया को आधुनिक वनस्पति विज्ञान में इस प्रकार कलाय, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, बाल, कलथ, ला आफ आसमोसिस (परासरण की क्रिया) कहते हैं। इस क्रिया आलिसन्दक, तुअर, काला चना इत्यादि को उपर्युक्त तरीके के अन्तर्गत पौधे की जकड़ा जड़ें आक्सीलरी रूट्स मूलीय दाब से रखा गया हो तो उनकी उत्पादन क्षमता कम से अन्तर्मुहूर्त के द्वारा पृथ्वी से विभिन्न प्रकार के लवणों जैसे नाइट्रोजन, एवं उत्कृष्ट योनि पांच वर्ष तक होती है। इसी प्रकार अलसी, फास्फोरस, पोटाश आदि का जलीय रूप में अवशोषण करके कुसुम्भ, कोद्रव, कांगणी, बरट, राल, सण, सरसों मूलक बीज पत्तियों तक पहुंचाती हैं जहां सूर्य के प्रकाश व हरितलवक की आदि धान्यों की उत्पादन क्षमता कम से कम अन्तमुर्हत एवं उपस्थिति में वे भोजन का निर्माण करके पौधे के प्रत्येक भाग में उत्कृष्ट योनि के कायम रहने का काल सात वर्ष है। पहुँचा जाती हैं, जिससे पौधा विकसित होता है।
इस निर्धारित अवधि के बाद इन सभी प्रकार के धान्यों वनस्पति वर्गीकरण :की अंकुरण-क्षमता समाप्त हो जाती है और बीज अबीजक इसी ग्रन्थ में एक जिज्ञासा का और समाधान किया गया हो जाते हैं।
है कि आलू, मूला, अदरक, हल्दी इत्यादि के अन्तर्गत आने आहार-संग्रहण :
वाली विभिन्न वनस्पतियां अनन्त जीव वाली हैं और भिन्नभगवतीसूत्र में वनस्पति विज्ञान के सम्बन्ध में जो भिन्न जीव वाली हैं। इससे कन्द मूल के अन्तर्गत आने वाली महत्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं उनमें से जो प्रमुख २३ वनस्पतियों का नामकरण भी यहां दिया गया है :हैं यहां उन पर विचार करना आवश्यक है। इस ग्रन्थ में बताया १) आलू २) मूला ३) श्रृगबेर अदरख ४) हिरिली गया है कि वनस्पति कायक जीवन विभिन्न ऋतुओं में भिन्न ५) सिरिली ६) सिसिरिली ७) किट्टिका ८) छिरिया प्रकार से अपना आहार ग्रहण करते हैं। पावस (वर्षा) ऋतु में ९) छीर विदारिका १०) वज्रकन्द ११) सूरणकन् वनस्पतियां सबसे अधिक आहार करने वाली होती हैं। इसके १२) खिलूड़ा १३) भद्रमोथा १४) पिंडहरिद्रा १५) हल्दी बाद शरद ऋतु व हेमन्त ऋतु में उससे कम आहार करती हैं १६) रोहिणी १७) हूथीहू १८) थिरुगा १९) मृद्कर्णी तथा बसन्त व ग्रीष्म ऋतु में क्रमश: अल्पाहारी हो जाती हैं। २०) अश्वकर्णी २१) सिंहकर्णी २२) सिहण्डी ग्रन्श के इस कथन का अर्थ है कि वनस्पतियां जल की २३) मुसुण्डी।
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत् खण्ड/७५
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