________________
Jain Education International
६१२
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
आचारांग सूत्र के आठवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक में एक पाठ इस प्रकार है
'जे भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिट्ठेज्ज वा, णिसीएज्ज वा, तुयट्टेज्ज वा, सुसानंति वा सुन्नागारैति वा, गिरिमूस या कुंभारावतति वा (८.२१)
गृहति वा
यहाँ 'कुंभारायतवर्णसि' (कुम्भकार आयतन) की बात सहज समझ में नहीं आती। वह शब्द श्मशान आदि चार शब्दों से अलग-थलग पड़ जाता है। सम्भव है इस शब्द के साथ-साथ अन्य आयतनों का भी उल्लेख रहा हो । यह तथ्य आचारांगण की अर्थ-परम्परा से स्पष्ट लक्षित होता है । सम्भव है पहले 'जाव' शब्द द्वारा दूसरे सारे आयतनों का ग्रहण होता रहा हो और कभी किसी लिपिकर्ता से 'जाव' शब्द छूट गया और उस प्रति से लिखी गई सारी प्रतियों में केवल 'कुम्भकारायतणंसि' पाठ लिखा गया। इस प्रकार अनेक शब्द छूट गये। टीकाकारों ने इनका विमर्श नहीं किया। शेष शब्दों के अभाव में इस एक शब्द की यहाँ कोई अर्थ-संगति नहीं बैठती।
इसी प्रकार ज्ञातासूत्र के १.१४.४ में कनकरथ राजा के अमात्य तेतलीपुत्र के गुणों का वर्णन है । वहाँ प्रायः प्रतियों में 'तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णाम अमच्चे सामदंड' इतना ही पाठ है। यहाँ जाव' आदि संग्राहक शब्दों का भी उल्लेख नहीं है। वास्तव में यह पाठ इतना होना चाहिए-तस्स णं कणगरहस्त तेयलिपुले नाम मच्चे साम-दंड-भय-उवप्प याणनीति सुप्प उत्त-नय- विष्णू, 'ईहा- बृह- मग्गण - गवेसण अत्य सत्थ- मइविसारए, उत्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए परिणामियाए- चउव्विहाए बुद्धीए उबवेए, कणगरहस्स रष्णो बहूसु कज्जेसु य कुडुबेसु य मंतेसु य गुज्झेस य रहसेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे, मेढी पमाणं आहारे आलंबलणं चक्खू, मेढीभए पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभए, चक्खुभए, सव्वकज्जेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए विइष्ण वियारे रज्जधुरचितए यादि होत्था, कणगरहस्स रजो रज्ज चरच कोस च कोठागारं च बलं च वाहणं च पुरं च अंतरं च सममेव समुपेक्खमाणं समुपेक्खमाणे विहरद्द" ॥
इसी प्रकार ज्ञातासूत्र में अनेक स्थानों पर लम्बे-लम्बे गद्यांश छूट गए हैं
(१) इस सूत्र के आठवें अध्ययन का ११७-१८वां सूत्र प्रतियों में इस प्रकार प्राप्त होता है- 'आभरणालंकार पभावईपछिई...' । इसमें बहुत सारे शब्द छूट गए हैं। पूरा पाठ इस प्रकार होना चाहिए-
२१७. .......आभरणालंकार ओमुयह। २१८......तपूर्ण पभाई हंसल
पसाउएवं आभरणालंकार पडिच्छाई । ( २ ) इसी सूत्र के पहले अध्ययन का १६८वां सूत्र प्रतियों में इस प्रकार लिखित है
तए णं तुमं मेहा ! अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयांस जेट्ठामूले
इसके स्थान पर पाठ इस प्रकार होना चाहिए
लए गं तुमं मेहा ! अण्णया क्याइ गिम्हकालसमयसि जेट्ठामूले मासे पायवससमुट्ठिएणं मारुपसंजोगदी बिएणं महाभयकरणं हुयवहेणं वणदवजालापलितं सु वर्णतेसु
कई स्थानों में अनावश्यक अंश भी प्रविष्ट हो गये हैं। इसी सूत्र के पहले अध्ययन का १२५वाँ सूत्र प्रतियों में इस प्रकार उपलब्ध है
सुवकतणपत्तकवधर( १.१.१६०)
'मउडं पिणद्धेति, दिव्वं सुमणदामं पिणद्धेति, दद्दर-मलयसुगंधिए गंधे पिणद्धेति । तए णं तं मेहं कुमारं गंथिमवेहिमपुरम-संघारमेणं......
इसके स्थान पर पाठ ऐसा होना चाहिए
....... पिद्धति, पिता विम-मि-पूरिम-संघाइ मेणं'''''''''
शब्दों के स्थानान्तरण के अनेक उदाहरण हमें उपलब्ध होते हैं । ज्ञातासूत्र के प्रथम अध्ययन के १८५वें सूत्र में—'तएण से मेहे अनगारे समणओ भगवस्य महावीरस्स अंतिए तहाख्वाणं वेराणं सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई अहिज्ज
ऐसा पाठ प्रतियों में मिलता है। इसका अर्थ है तब वह मेष अनगार श्रमण भगवान् महावीर के
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.