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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
उपर्युक्त व्यापक दृष्टि से विषय का अवलोकन करने पर यह समझना आसान हो जाएगा कि अहिंसा को पंच यमों में क्यों प्रमुख स्थान दिया गया है तथा सत्यादि भी अहिंसा के अंग क्यों माने गये हैं? सत्य का अर्थ है असत्य भाषण कर दूसरे को कष्ट न देना । अस्तेय अर्थात् दूसरे के सत्त्व का हरण कर उसे कष्ट न देना ।
परिग्रह का अर्थ है जिन वस्तुओं पर दूसरों की दृष्टि है, वह मेरे द्वारा भोगी जाये यह भाव तथा आवश्यकता से अधिक संग्रह करना । संसार में भोजन का एक भी ऐसा कौर नहीं है, जिस पर मक्खी, चींटी, चिड़ियाँ आदि की दृष्टि न हो इतना होते हुए भी जो इनका संग्रह करता है, वह हिंसा करता है । - अतः इससे विरत होना अपरिग्रह है । इसी तरह दूसरे को भोग्य न समझना एवं भोक्तृत्व की हिंसा न करना ही ब्रह्मचर्य है। दुर्भाग्य यह है कि अनादि काल से जीवन के लिए संघर्ष में रत मानव के लिए हिंसा स्वाभाविक हो गई है उसे सीखना नहीं पड़ता । लेकिन अहिंसा के लिए शिक्षा आवश्यक है, एवं हिंसा के त्याग द्वारा अहिंसा के संस्कारों को दृढ़ करना आवश्यक है ।
अहिंसा की साधना
अहिंसा के स्वरूप की विस्तृत व्याख्या का उद्देश्य उसकी साधना के प्रकार तथा उपायों को भलिभाँति समझना है। जैसा कि कहा जा चुका है, अहिंसा के तीन स्तर हैं: पारमार्थिक, मानसिक और शारीरिक । पारमार्थिक अहिंसा लक्ष्य है, एवं मानसिक और शारीरिक अहिंसा उस लक्ष्य को पाने के उपाय । इन उपायों में मानसिक अहिंसा या भाव अहिंसा, शारीरिक या द्रव्य अहिंसा से अधिक महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि मन से अहिंसक अथवा शान्त हुए बिना जीवन में हिंसा का सम्यक् त्याग संभव नहीं है । भाव अहिंसा या मानसिक अहिंसा की साधना
(१) सर्वत्र आत्म दर्शन का अभ्यास - इस पारमार्थिक सत्य को बार-बार विचार द्वारा मन में बिठाने का प्रयत्न
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करना चाहिए तथा लौकिक व्यवहार के समय मन में इस बात का स्मरण करते रहना चाहिए कि सर्वत्र एक ही परमात्म सत्ता विद्यमान है जो मेरी आत्मा से अभिन्न है । पारमार्थिक सत्य पर सीधे आधारित हुए भी यह साधना आसान नहीं है। अतः इससे उतर कर कुछ निम्न स्तर पर मन से हिंसा तथा हिंसा सम्बन्धित भावों को त्यागने का प्रयत्न किया जाना चाहिए ।
(२) वैर त्याग की साधना - मानसिक स्तर पर अहिंसा वैर, घृणा इत्यादि के रूप में अभिव्यक्त होती है । वैर भी पर-पात्र के भेद से चार प्रकार का होता है। जिसके सुख
हमारा स्वार्थ नहीं रहता या जिसके सुख से हमारे स्वार्थ का व्याघात होता है, उसको सुखी देखने से उनका चिन्तन करने से साधारण चित्त प्रायः ईर्ष्यालु होते हैं । उसी प्रकार शत्रु आदि को दुखी देखने से निष्ठुर हर्ष उमड़ता है । जो हमारे अपने मतानुसारी नहीं हैं पर पुण्यकर्मा हैं, ऐसे व्यक्तियों की प्रतिष्ठा आदि देखने से या चिन्तन करने से मन में असूया या अमुदित भाव आते हैं और जो पुण्यकर्मा नहीं हैं उनके प्रति (यदि स्वार्थ नहीं रहे तो ) अमर्ष या क्रुद्ध तथा पिशुन भाव उठते हैं। इस प्रकार ईर्ष्या, निष्ठुर हर्ष, अमुदिता तथा क्रुद्ध पिशुन भाव हिंसा या वैर के ही चार प्रकार हैं । इन्हें सुखी के प्रति मैत्री भाव, दुःखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति मुदिता या प्रसन्नता की भावना तथा अपुण्यात्माओं की उपेक्षा के द्वारा दूर करना चाहिए। इन भावनाओं को दृढ़ करने वाली अनेक प्रार्थनाएँ सभी धर्मों में प्रचलित है, तथा उनका प्रतिदिन पाठ कर इन भावनाओं को मन में दृढ़ करना मानसिक अहिंसा की साधना का अंग है। यह भाव निम्न श्लोक में सुन्दर रूप से व्यक्त हुआ है :
सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव !
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अहिंसा परमो धर्मः
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